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पंचम प्रकरण दशवैकालिकचूर्णि (जिनदासगणिकृत) यह चूणि' भी नियुक्ति का अनुसरण करते हुए लिखी गई है तथा द्रुमपुष्पिका आदि दस अध्ययन एवं दो चूलिकाएँ-इस प्रकार बारह अध्ययनों में विभक्त है । इसकी भाषा मुख्यतया प्राकृत है। प्रथम अध्ययन में एकक, काल, द्रुम, धर्म आदि पदों का निक्षेप-पद्धति से विचार किया गया है तथा शय्यंभववृत्त, दस प्रकार के श्रमणधर्म, अनुमान के विविध अवयव आदि का प्रतिपादन किया गया है । संक्षेप में प्रथम अध्ययन में धर्म की प्रशंसा का वर्णन किया गया है । द्वितीय अध्ययन का मुख्य विषय धर्म में स्थित व्यक्ति को धृति कराना है। चूर्णिकार इस अध्ययन की व्याख्या के प्रारम्भ में ही कहते हैं कि 'अध्ययन' के चार अनुयोगद्वारों का व्याख्यान उसी प्रकार समझ लेना चाहिए जिस प्रकार आवश्यकचूर्णि में किया गया है । इसके बाद श्रमण के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए पूर्व, काम, पद, शीलांगसहस्त्र आदि पदों का सोदाहरण विवेचन किया गया है। तृतीय अध्ययन में दृढधृतिक के आचार का प्रतिपादन किया गया है। इसके लिए महत्, क्षुल्लक, आचार, दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार, अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा, मिश्रकथा, अनाचीर्ण, संयतस्वरूप आदि का विचार किया गया है । चतुर्थ अध्ययन की चूणि में जीव, अजीव, चारित्रधर्म, यतना, उपदेश, धर्मफल आदि के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है । पंचम अध्ययन की चणि में साधु के उत्तरगुणों का विचार किया गया है जिसमें पिण्डस्वरूप, भक्तपानेषणा गमनविधि, गोचरविधि, पानकविधि, परिष्ठापनविधि, भोजनविधि, आलोचनविधि आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है । बीच-बीच में कहीं-कहीं पर मांसाहार, मद्यपान आदि की चर्चा भी की गई है। षष्ठ अध्ययन में धर्म, अर्थ, काम, व्रतषट्क, कायषटक आदि का प्रतिपादन किया गया है। इस अध्ययन की चूणि में आचार्य ने अपने संस्कृत व्याकरण के पाण्डित्य का भी अच्छा परिचय दिया है। सप्तम अध्ययन की चूणि में भाषासम्बन्धी विवेचन है। इसमें भाषा की शुद्धि, अशुद्धि, सत्य, मृषा, सत्यमृषा
१. श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेतांबर संस्था, रतलाम, सन् १९३३. २. दशवैकालिकचूणि, पृ. ७१. ३. वही, पृ. १८४, १८७, २०२, २०३.
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