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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अयोगिगुणस्थान और योगनिरोध, सिद्धों का सुख, अवगाह आदि, आचार्यनमस्कार, उपाध्यायनमस्कार, साधुनमस्कार, नमस्कार का प्रयोजन आदि। यहाँ तक नमस्कारनियुक्ति की चूणि का अधिकार है।
__सामायिकनियुक्ति की चूणि में 'करेमि' इत्यादि पदों की पदच्छेदपूर्वक व्याख्या की गई है तथा छः प्रकार के करण का विस्तृत निरूपण किया गया है । यहाँ तक सामायिकचूणि का अधिकार है ।
सामायिक अध्ययन की चूणि समाप्त करने के बाद आचार्य ने द्वितीय अध्ययन चतुर्विंशतिस्तव पर प्रकाश डाला है। इसमें नियुक्ति का ही अनुसरण करते हुए स्तव, लोक, उद्योत, धर्म, तीर्थंकर आदि पदों का निक्षेप-पद्धति से व्याख्यान किया गया है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभ का स्वरूप बताते हुए चर्णिकार कहते हैं : वृष उद्वहने, उव्वूढं तेन भगवता जगत्संसारभग्गं तेन ऋषभ इति, सर्व एव भगवन्तो जगदुद्वहन्ति अतुलं नाणदंसणचरितं वा, एते सामण्णं वा, विसेसो ऊरुषु दोसुवि भगवतो उसभा ओपरामुहा तेण निव्वत्त बारसाहस्स नामं कत्तं उसभो त्ति"।' इसी प्रकार अन्य तीर्थकरों का स्वरूप भी बताया गया है। ___ तृतीय अध्ययन वन्दना का व्याख्यान करते हुए आचार्य ने अनेक दृष्टान्त दिये हैं। वन्दनकर्म के साथ-ही-साथ चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म का भी सोदाहरण विवेचन किया है । वन्द्यावन्द्य का विचार करते हुए चूर्णिकार ने वन्द्य श्रमण का स्वरूप इस प्रकार बताया है : श्रम तपसि खेदे च, श्राम्यतीति श्रमणः तं वंदेज्जं, केरिसं? 'मेधावि' मेरया धावतीति मेधावी, अहवा मेधावी-विज्ञानवान् तं; पाठान्तरं वा समणं वंदेज्जु मेधावी । तेण मेधाविणा मेधावी वंदितव्वो, चउभंगी, चउत्थे भंगे कितिकंमफलं भवतीति, सेसएस भयणा। तथा 'संजर्त' संमं पावोवरतं, तहा 'सुसमाहितं' सुठ्ठ समाहितं सुसमाहितं गाणदंसणचरणेसु समुज्जतमिति यावत्, को य सो एवंभूतः ? पंचसमितो तिगुत्तो अट्ठहि पवयणमाताहिं ठितो"। मेधावी, संयत और सुसमाहित श्रमण की वन्दना करनी चाहिए। निम्नलिखित पाँच प्रकार के श्रमण अवन्द्य है : १. आजोवक, २. तापस, ३. परिव्राजक, ४. तच्चणिय, ५. बोटिक । इसी प्रकार पार्श्वस्थ आदि भी अवंद्य हैं। चूर्णिकार स्वयं लिखते हैं : किं च, इमेवि पंच ण वंदियव्वा समणसद्देवि सति, जहा आजीवगा तावसा परिव्वायगा तच्चणिया बोडिया समणा वा इमं सासगं पडिवन्ना, ण य ते अन्नतित्थे ण य सतित्थे जे वि सतित्थे
१. आवश्यकचुणि ( उत्तरभाग ), पृ० ९.
२. पृ० १९-२०.
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