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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
___ भरत का राज्याभिषेक, भरत और बाहुबलि का युद्ध, बाहुबलि को केवलज्ञान की प्राप्ति आदि घटनाओं का वर्णन भी आचार्य ने कुशलतापूर्वक किया है। इस प्रकार ऋषभदेवसम्बन्धी वर्णन समाप्त करते हुए चक्रवर्ती, वासुदेव आदि का भी थोड़ा-सा परिचय दिया है तथा अन्य तीर्थकरों की जीवनी पर भी किंचित् प्रकाश डाला गया है । साथ ही यह भी बताया गया है कि भगवान महावीर के पूर्वभव के जीव मरीचि ने किस प्रकार भगवान् ऋषभदेव से दीक्षा ग्रहण की और किस प्रकार परीषहों से भयभीत होकर स्वतन्त्र सम्प्रदाय की स्थापना की । इस वर्णन में मूल बातें वही हैं जो आवश्यकनियुक्ति में है।'
निर्गमद्वार के प्रसंग से इतनी लम्बी चर्चा होने के बाद पुनः भगवान् महावीर का जीवन-चरित्र प्रारम्भ होता है। मरीचि का जीव किस प्रकार अनेक भवों में भ्रमण करता हुआ ब्राह्मणकुण्ड ग्राम में देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में आता है, किस प्रकार गर्भापहरण होता है, किस प्रकार राजा सिद्धार्थ के पुत्र के रूप में उत्पन्न होता है, किस प्रकार सिद्धार्थसुत वर्धमान का जन्माभिषेक किया जाता है। आदि बातों का विस्तृत वर्णन करने के बाद आचार्य ने महावीर के कुटुम्ब का भी थोड़ा-सा परिचय दिया है। वह इस प्रकार है :२ ।
समणे भगवं महावीरे कासवगोत्तेणं, तस्स णं ततो णामधेज्जा एवमाहिज्जंति, तंजहा-अम्मापिउसंतिए वद्धमाणे सहसंमुदिते समणे अयले भयभेरवाणं खंता पडिमासतपारए अरतिरतिसहे दविए धितिविरिय संपन्ने परीसहोवसग्गसहेत्ति देवेहिं से कतं णामं समणे भगवं महावीरे । भगवतो माया चेडगस्स भगिणी, भोयी चेडगस्स धुआ, णाता णाम जे उसभसामिस्स सयाणिज्जगा ते णातवंसा, पित्तिज्जए सुपासे, जेढे भाता णंदिवद्धणे, भगिणी सुदंसणा, भारिया जसोया कोडिन्नागोत्तेणं, धूया कासबीगोत्तेणं तीसे दो नामधेज्जा, तं०-अणोज्जगित्ति वा पियदसणाविति वा, णत्तुई कोसीगोत्तेणं, तीसे दो नामधेज्जा ( जसवतीति वा ) सेसवतीति वा, एवं ( यं ) नामाहिगारे दरिसितं । __ भगवान् महावीर के जीवन से सम्बन्धित निम्न घटनाओं का विस्तृत वर्णन चूर्णिकार ने किया है : धर्मपरीक्षा, विवाह, अपत्य, दान, सम्बोध, लोकान्तिकागमन, इन्द्रागमन, दीक्षामहोत्सव, उपसर्ग, इन्द्र-प्रार्थना, अभिग्रहपंचक, अच्छंदकवृत्त, चण्डकौशिकवृत्त, गोशालकवृत्त, संगमककृत उपसर्ग, देवीकृत उपसर्ग, वैशाली आदि में विहार, चन्दनबालावृत्त, गोपकृत, शलाकोपसर्ग, केवलोत्पाद, समवसरण, गणधरदीक्षा आदि । देवीकृत उपसर्ग का वर्णन करते समय आचार्य ने
१. देखिए-आवश्यकनियुक्ति, गा० ३३५-४४०. २. आवश्यकचूणि (पूर्वभाग), पृ० २४५.
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