________________
तृतीय प्रकरण
अनुयोगद्वारचूर्णि मह चूर्णि' मूल सूत्र का अनुसरण करते हुए मुख्यतया प्राकृत में लिखी गई है। इसमें संस्कृत का बहुत कम प्रयोग हुआ है । प्रारम्भ में मंगल के प्रसंग से भावनंदी का स्वरूप बताते हुए 'णाणं पंचविधं पण्णत्तं' इस प्रकार का सूत्र उद्धृत किया गया है और कहा गया है कि इस सूत्र का जिस प्रकार नंदीचूणि में व्याख्यान किया गया है उसी प्रकार यहाँ भी व्याख्यान कर लेना चाहिए। इस कथन से स्पष्ट है कि नन्दीचूणि अनुयोगद्वारचूणि से पहले लिखी गई है। प्रस्तुत चणि में आवश्यक, तंदुलवैचारिक आदि का भी निर्देश किया गया है । अनुयोगविधि और अनुयोगार्थ का विचार करते हुए चूर्णिकार ने आवश्यकाभिकार पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है । आनुपूर्वी का विवेचन करते हुए कालानुपूर्वी के स्वरूप-वर्णन के प्रसंग से आचार्य ने पूर्वागों का परिचय दिया है । 'णामाणि जाणि' आदि की व्याख्या करते हुए नाम शब्द का कर्म आदि दृष्टियों से विचार किया गया है। सात नामों के रूप में सप्तस्वर का संगीतशास्त्र की दृष्टि से सूक्ष्म विवेचन किया गया है। नवविध नामका नौ प्रकार के काव्यरस के रूप में सोदाहरण वर्णन किया गया है : वीर, श्रृंगार, अद्भुत, रौद्र, ब्रीडनक, बीभत्स, हास्य, करुण और प्रशान्त । इसी प्रकार प्रस्तुत चूणि में आत्मांगुल, उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल, कालप्रमाण, औदारिकादि शरीर, मनुष्यादि प्राणियों का प्रमाण, गर्भजादि मनुष्यों की संख्या, ज्ञान और प्रमाण, संख्यात, असंख्यात, अनन्त आदि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है ।
१. हरिभद्रकृत वृत्तिसहित-श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, सन् १९२८.
२. इमस्स सुत्तस्स जहा नंदिचुण्णीए वक्खाणं तथा इहंपि वक्खाणं दट्ठवं. अणुयोगद्वारचूणि, पृ. १-२. तुलना : नन्दीचूणि, पृ. १० और आगे । ३. अनु
योगद्वारचूर्णि, पृ. ३.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org