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द्वितीय प्रकरण
नन्दीचूर्णि यह चूणि' मूल सूत्रानुसारी है तथा मुख्यतया प्राकृत में लिखी गयी है। इसमें यत्र-तत्र संस्कृत का प्रयोग अवश्य है किन्तु वह नहीं के बराबर है। इसकी व्याख्यानशैली संक्षिप्त एवं सारग्राही है । इसमें सर्वप्रथम जिन और वीरस्तुति की व्याख्या की गई है, तदनन्तर संघस्तुति की । मूल गाथाओं का अनुसरण करते हुए आचार्य ने तीर्थंकरों, गणधरों और स्थविरों की नामावली भी दी है। इसके बाद तीन प्रकार की पर्षद् की ओर संकेत करते हुए ज्ञानचर्चा प्रारंभ की है । जैनागमों में प्रसिद्ध आभिनिबोधिक ( मति ), श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल-इन पांच प्रकार के ज्ञानों का स्वरूप-वर्णन करने के बाद आचार्य ने प्रत्यक्ष-परोक्ष की स्वरूप-चर्चा की है । केवलज्ञान की चर्चा करते हुए चूर्णिकार ने पन्द्रह प्रकार के सिद्धों का भी वर्णन किया है : १. तीर्थसिद्ध , २. अतीर्थसिद्ध, ३. तीर्थकरसिद्ध, ४. अतीथंकरसिद्ध, ५. स्वयंबुद्धसिद्ध, ६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध, ७. बुद्धबोधितसिद्ध, ८. स्त्रीलिंगसिद्ध, ९. पुरुषलिंगसिद्ध, १०. नपुंसकलिंगसिद्ध, ११. स्वलिंगसिद्ध, १२. अन्यलिंगसिद्ध, १३. गृहलिंगसिद्ध, १४. एकसिद्ध, १५. अनेकसिद्ध । ये अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान के भेद है। इसी प्रकार केवलज्ञान के परम्परसिद्ध केवलज्ञान आदि अनेक भेदोपभेद हैं। इन सब का मूल सूत्रकार ने स्वयं ही निर्देश किया है।
केवलज्ञान और केवलदर्शन के सम्बन्ध की चर्चा करते हुए आचार्य ने तीन मत उद्धृत किये हैं : १. केवलज्ञान और केवलदर्शन का यौगपद्य, २. केवलज्ञान
और केवलदर्शन का क्रमिकत्व, ३. केवलज्ञान और केवलदर्शन का अभेद । एत. द्विषयक गाथाएँ इस प्रकार हैं :
केई भणंति जुगवं जाणइ पासइ य केवली णियमा । अण्णे एगंतरियं इच्छंति सुतोवदेसेणं ॥ १ ॥ अण्णे ण चेव वीरां दंसणमिच्छंति जिणवरिंदस्स ।।
जं चिय केवलणाणं तं चिय से दसणं बेंति ॥ २॥ १. श्रीविशेषावश्यकसत्का अमुद्रितगाथाः श्रीनन्दीसूत्रस्य चूणिः हारिभद्रीया वृत्तिश्च-श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, सन् १९२८. नंदिसूत्रम् चूर्णिसहितम्-प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, वाराणसी, सन् १९६६.
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