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चूणियाँ और चूर्णिकार व्याख्या ( विपमपदव्याख्या ) श्रीचन्द्रसूरि ने वि० सं० १२२७ में पूर्ण की है अतः चूर्णिकार सिद्धसेन वि० सं० १२२७ के पहले होने चाहिए। ये सिद्धसेन कौन हो सकते हैं, इसकी संभावना का विचार करते हुए पं० दलसुख मालवणिया लिखते है कि आचार्य जिनभद्र के पश्चात्वर्ती तत्त्वार्थभाष्य-व्याख्याकार सिद्धसेनगणि और उपमितिभवप्रपंचकथा के लेखक सिद्धर्षि अथवा सिद्धव्याख्यानिक-ये दो प्रसिद्ध आचार्य तो प्रस्तुत चूणि के लेखक प्रतीत नहीं होते, क्योंकि यह चूणि भाषा का प्रश्न गौण रखते हुए देखा जाय तो भी कहना पड़ेगा कि बहुत सरल शैली में लिखी गई है, जबकि उपयुक्त दोनों आचार्यों की शैली अति क्लिष्ट है। दूसरी बात यह है कि इन दोनों आचार्यों की कृतियों में इसकी गिनती भी नहीं की जाती। इससे प्रतीत होता है कि प्रस्तुत सिद्धसेन कोई अन्य ही होने चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य जिनभद्रकृत बृहत्क्षेत्रसमास की वृत्ति के रचयिता सिद्धसेनसूरि प्रस्तुत चूणि के भी कर्ता होने चाहिए क्योंकि इन्होंने उपयुक्त वृत्ति वि० सं० ११९२ में पूर्ण की थी। दूसरी बात यह है कि इन सिद्धसेन के अतिरिक्त अन्य किसी सिद्धसेन का इस समय के आसपास होना ज्ञात नहीं होता। ऐसी स्थिति में बृहत्क्षेत्रसमास की वृत्ति के कर्ता और प्रस्तुत चूणि के लेखक संभवतः एक ही सिद्धसेन है । यदि ऐसा ही है तो मानना पड़ेगा कि चूणिकार सिद्धसेन उपकेशगच्छ के थे तथा देवगुप्तसूरि के शिष्य एवं यशोदेवसूरि के गुरुभाई थे। इन्हीं यशोदेवसूरि ने उन्हें शास्त्रार्थ सिखाया था।
उपयुक्त मान्यता पर अपना मत प्रकट करते हुए पं० श्री सुखलालजी लिखते हैं कि जीतकल्प एक आगमिक ग्रंथ है । यह देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि उसको चूणि के कर्ता कोई आगमिक होने चाहिए। इस प्रकार के एक आगमिक सिद्धसेन क्षमाश्रमण का निर्देश पंचकल्पचूणि तथा हारिभद्रीयवृत्ति में है । संभव है कि जीतकल्पचूर्णि के लेखक भी यही सिद्धसेन क्षमाश्रमण हों। जब तक एतद्विषयक निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं होते तब तक प्रस्तुत चूर्णिकार सिद्धसेन सरि के विषय में निश्चित रूप से विशेष कुछ नहीं कहा जा सकता।
पं० दलसुख मालवणिया ने निशीथ-चूणि की प्रस्तावना में संभावना की है कि ये सिद्धसेन आचार्य जिनभद्र के साक्षात् शिष्य हों। ऐसा इसलिए संभव है कि जीतकल्पभाष्य-चूणि का मंगल इस बात की पुष्टि करता है। साथ ही यह भी संभावना की है कि बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ भाष्य के भी कर्ता ये हों।
१. गणधरवाद : प्रस्तावना, पृ० ४४. २. वही : वृद्धिपत्र, पृ० २११. ३. निशीथसूत्र (सन्मति ज्ञानपीठ), भा० ४ : प्रस्तावना, पृ० ३८ से.
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