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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
हैं : निशीथविशेषचूर्णि, नन्दोचूर्णि, अनुयोगद्वारचूर्णि आवश्यकचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि, उत्तराध्ययनचूर्णि और सूत्रकृतांगचूर्णि । उपलब्ध जीतकल्पचूर्णि सिद्ध
सूरि की कृति है । बृहत्कल्पचूर्णिकार का नाम प्रलम्बसूरि है ।" आचार्य जिनभद्र की कृतियों में एक चूर्णि का भी समावेश है । यह चूर्णि अनुयोगद्वार
अंगुल पद पर है जिसे जिनदास की अनुयोगद्वारचूर्णि में अक्षरशः उद्धृत किया गया है । इसी प्रकार दशवैकालिकसूत्र पर भी एक और चूर्णि है । इसके - रचयिता अगस्त्य सिंह हैं । अन्य चूर्णिकारों के नाम अज्ञात हैं ।
जिनदासगणि महत्तर के जीवन चरित्र से सम्बन्धित विशेष सामग्री उपलब्ध चूर्णिकार का नाम जिनदास बताया रूप में प्रद्युम्न क्षमाश्रमण के नाम चूर्णिकार का परिचय
नहीं है । निशीथविशेषचूर्णि के अन्त में गया है तथा प्रारंभ में उनके विद्यागुरु के - का उल्लेख किया गया है । उत्तराध्ययनचूर्णि के अन्त में दिया गया है किन्तु उनके नाम का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है। इसमें उनके गुरु का नाम वाणिज्यकुलीन, कोटिकगणीय, वज्रशाखीय गोपालगणि महत्तर बताया गया है । नन्दीचूर्णि के अन्त में चूर्णिकार ने अपना जो परिचय दिया है वह अस्पष्ट रूप में उपलब्ध है । जिनदास के समय के विषय में इतना कहा जा सकता है कि ये भाष्यकार आचार्य जिनभद्र के बाद एवं टीकाकार आचार्य हरिभद्र के पूर्व हुए हैं क्योंकि आचार्य जिनभद्र के भाष्य की अनेक गाथाओं का उपयोग इनकी चूर्णियों में हुआ है, जबकि आचार्य हरिभद्र ने अपनी टीकाओं
में इनकी चूर्णियों का पूरा उपयोग किया है । आचार्य जिनभद्र का समय विक्रम - संवत् ६००-६६० के आसपास है तथा आचार्य हरिभद्र का समय वि० सं० ७५७-८२७ के बीच का है । ऐसी दशा में जिनदासगणि महत्तर का समय वि० - सं० ६५०-७५० के बीच में मानना चाहिए । नन्दीचूर्णि के अन्त में उसका रचना-काल शक संवत् ५९८ अर्थात् वि० सं० ७३३ निर्दिष्ट है ।" इससे भी यही सिद्ध होता है ।
उपलब्ध जीतकल्पचूर्णि के कर्ता सिद्धसेनसूरि हैं । प्रस्तुत सिद्धसेन, सिद्धसेन - दिवाकर से भिन्न ही कोई आचार्य हैं । इसका कारण यह है कि सिद्धसेन दिवाकर जीतकल्पकार आचार्य जिनभद्र के पूर्ववर्ती हैं। प्रस्तुत चूर्णि की एक
२. गणधरवाद, पृ० २११.
१. जैन ग्रंथावली, पृ० १२, टि० ५. ३. गणधरवादः प्रस्तावना, पृ० ३२-३.
४. जैन आगम, पृ० २७.
५. A History of the Canonical Literature of the Jainas, पृ० १९१; नन्दी सूत्र - चूर्णि ( प्रा० टे० सो० ), पृ० ८३.
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