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चूणियाँ और चूर्णिकार
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___ आवश्यकचूर्णि में ओपनियुक्तिचूणि का उल्लेख है।' इससे प्रतीत होता है कि ओपनियुक्तिचूणि आवश्यकचूणि से पूर्व लिखी गई है । दशवैकालिकचूणि में आवश्यकचूणि का नामोल्लेख हैजिससे यह सिद्ध होता है कि आवश्यकचूणि दशवकालिकचूणि से पूर्व की रचना है। उत्तराध्ययनचूर्णि में दशवकालिकचूणि का निर्देश है। जिससे प्रकट होता है कि दशवैकालिकणि उत्तराध्ययनचूणि के पहले लिखी गई है। अनुयोगद्वारचूणि में नंदीचूणि का उल्लेख किया गया है। जिससे सिद्ध होता है कि नंदीचूणि की रचना अनुयोगद्वारचूर्णि के पूर्व हुई है । इन उल्लेखों को देखते हुए श्री आनन्दसागर सूरि के मत का समर्थन करना अनुचित नहीं है। हाँ, उपयुक्त रचना-क्रम में अनुयोगद्वारणि के बाद तथा आवश्यकचूणि के पहले ओघनियुक्तिचूणि का भी समावेश कर लेना चाहिए क्योंकि आवश्यकचूणि में ओपनियुक्तिचूणि का उल्लेख है जो आवश्यकचूणि के पूर्व की रचना है।
भाषा की दृष्टि से नन्दीचूणि मुख्यतया प्राकृत में है। इसमें संस्कृत का बहुत कम प्रयोग किया गया है । अनुयोगद्वारचूर्णि भी मुख्यरूप से प्राकृत में ही है, जिसमें यत्र-तत्र संस्कृत के श्लोक और गद्यांश उद्धृत किये गये हैं। जिनदासकृत दशवैकालिकचूणि की भाषा मुख्यतया प्राकृत है, जबकि अगस्त्यसिंहकृत दशवैकालिकचूणि प्राकृत में ही है। उत्तराध्ययनणि संस्कृतमिश्रित प्राकृत में हैं। इसमें अनेक स्थानों पर संस्कृत के श्लोक उद्धृत किये गये हैं। आचारांगचूणि प्राकृत-प्रधान है, जिसमें यत्र-तत्र संस्कृत के श्लोक भी उद्धृत किये गये हैं। सूत्रकृतांगचूणि की भाषा एवं शैली आचारांगचूणि के ही समान है। इसमें संस्कृत का प्रयोग अन्य चूर्णियों की अपेक्षा अधिक मात्रा में हुआ है। जीतकल्पचूणि में प्रारम्भ से अन्त तक प्राकृत का ही प्रयोग है। इसमें जितने उद्धरण हैं वे भी प्राकृत-ग्रन्थों के ही हैं। इस दृष्टि से यह चूणि अन्य चणियों से विलक्षण है। निशीथविशेषचूणि अल्प-संस्कृतमिश्रित प्राकृत में है। दशाश्रुतस्कन्धचूणि प्रधानतया प्राकृत में है। बृहत्कल्पचूणि संस्कृतमिश्रित प्राकृत में है। चूर्णिकार :
चूर्णिकार के रूप में मुख्यतया जिनदासगणि महत्तर का नाम प्रसिद्ध है। इन्होंने वस्तुतः कितनी चणियाँ लिखी हैं, इसका कोई निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता। परंपरा से निम्नांकित चूणियाँ जिनदासगणि महत्तर की कही जाती
१. आवश्यकचूर्णि (पूर्वभाग ), पृ० ३४१. ३. उत्तराध्ययनचूणि, पृ० २७४.
२. दशवैकालिकचूणि, पृ० ७१.. ४. अनुयोगद्वारचूर्णि, पृ० १.
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