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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
विषयक पचीस आवश्यक क्रियाएँ; अनादत, स्तब्ध, प्रवृद्ध, परिपिण्डित, टोलगति, अंकुश आदि बत्तीस दोष और उनके लिए प्रायश्चित्त; आचार्यादि को वन्दना करने की विधि; विधि का विपर्यास करनेवाले के लिए प्रायश्चित्त; आचार्य से पर्यायज्येष्ठ को आचार्य वन्दन करे या नहीं-इसका विधान; आचार्य के रत्नाधिकों का स्वरूप; वन्दना किसे करनी चाहिए और किसे नहीं करनी चाहिए-इसका निर्णय; श्रेणि स्थितों को वन्दना करने को विधि; व्यवहार और निश्चयनय से श्रेणिस्थितों की प्रामाणिकता की स्थापना; संयमश्रेणि का स्वरूप; अपवादरूप से पार्श्वस्थादि के साथ किन स्थानों में किस प्रकार के अभ्युत्थान और वन्दनक का व्यवहार रखना चाहिए इत्यादि ।' अन्तरगृहस्थानादिप्रकृतसूत्र :
साधु साध्वियों के लिए घर के अन्दर अथवा दो घरों के बीच में रहना, बैठना, सोना आदि वर्जित है। इसी प्रकार अन्तरगृह में चार-पाँच गाथाओं का आख्यान, पंच महावतों का व्याख्यान आदि निषिद्ध है। खड़े-खड़े एकाध श्लोक अथवा गाथा का आख्यान करने में कोई दोष नहीं है। इससे अधिक गाथाओं अथवा श्लोकों का व्याख्यान करने से अनेक प्रकार के दोषों की सम्भावना रहती है अतः वैसा करना निषिद्ध है। शय्या-संस्तारकप्रकृतसूत्र :
प्रथम शय्यासंस्तारकसूत्र की व्याख्या में यह बताया गया है कि शय्या और संस्तारक के परिशाटी और अपरिशाटी ये दो भेद हैं। श्रमण-श्रमणियों को माँग कर लाया हुआ शय्या-संस्तारक स्वामी को सौंप कर ही अन्यत्र विहार करना चाहिए । ऐसा न करनेवाले को अनेक दोष लगते हैं।
द्वितीय सूत्र की व्याख्या में इस बात का प्रतिपादन किया गया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को अपने तैयार किये हुए शय्या-संस्तारक को बिखेर कर ही अन्यत्र विहार करना चाहिए । __ तृतीय सूत्र के व्याख्यान में इस बात पर जोर दिया गया है कि शय्यासंस्तारक की चोरी हो जाने पर साधु-साध्वियों को उसकी खोज करनी चाहिए । खोज करने पर मिल जाने पर उसो स्वामी को वापिस सौंपना चाहिए । न मिलने पर दूसरी बार याचना करके नया शय्या-संस्तारक जुटाना चाहिए । संस्तारक आदि चुरा न लिये जाएँ इसके लिए उपाश्रय को सूना नहीं छोड़ना चाहिए । सावधानी रखने पर भी उपकरण आदि की चोरी हो जाने पर उन्हें ढूंढने के लिए राजपुरुषों को विधिपूर्वक समझाना चाहिए ।
१. गा० ४४१४-४५५३. २. गा० ४५५४-४५९७. ३. गा० ४५९८-४६४९,
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