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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास लिया गया है : १. प्रत्युपेक्षणाद्वार, २. दिग्द्वार, ३. णन्तकद्वार, ४. कालगतद्वार, ५. जागरण-बन्धन-छेदनद्वार. ६. कुशप्रतिमाद्वार, ७. निवर्तनद्वार, ८. मात्रकद्वार, ९. शीर्षद्वार, १०. तृणादिद्वार, ११. उपकरणद्वार, १२. कायोत्सर्गद्वार, १३. प्रादक्षिण्यद्वार, १४. अभ्युत्थानद्वार, १५. व्याहरणद्वार, १६. परिष्ठापक-कायोत्सर्गद्वार, १७. क्षपण-स्वाध्यायमार्गणाद्वार, १८. व्युत्सर्जनद्वार, १९. अवलोकनद्वार ।'
१३. अधिकरणप्रकृतसूत्र-भिक्षु का गृहस्थ के साथ अधिकरण-झगड़ा हो गया हो तो उसे शान्त किए बिना भिक्षाचर्या आदि करना अकल्प्य है । . १४. परिहारिकप्रकृतसूत्र-परिहारतप में स्थित भिक्षु को इन्द्रमहादि उत्सवों के दिन विपुल भक्त-पानादि दिया जा सकता है। बाद में नहीं। उनकी अन्य प्रकार की सेवा तो बाद में भी की जा सकती है।
१५. महानदीप्रकृतसत्र-निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को गंगा, यमुना, सरयू, कोशिका, मही आदि महानदियों को महीने में एक से अधिक बार पार नहीं करना चाहिए। ऐरावती आदि कम गहरी नदियां महीने में दो-तीन बार पार की जा सकती हैं। नदी पार करने के लिए संक्रम, स्थल और नोस्थल-इस प्रकार तीन तरह के मार्ग बताये गये हैं।"
१६. उपाश्रयविधिप्रकृतसूत्र-इन सूत्रों की व्याख्या में निग्रन्थ-निम्रन्थियों के लिए वर्षाऋतु एवं अन्य ऋतुओं में रहने योग्य उपाश्रयों का वर्णन किया गया है। पंचम उद्देश :
इस उद्देश में ब्रह्मापाय आदि ग्यारह प्रकार के सूत्र हैं। भाष्यकार ने इन सूत्रों की व्याख्या में निम्न विषयों का समावेश किया है :
१. ब्रह्मापायप्रकृतसूत्र–च्छसम्बन्धी शास्त्र-स्मरणविषयक व्याघातों का धर्मकथा, महद्धिक, आवश्यको, नैषेधिकी, आलोचना, वादो, प्राघूर्णक, महाजन, ग्लान आदि द्वारों से निरूपण, शास्त्रस्मरण के लिए गुरु की आज्ञा, गच्छवास के गुणों का वर्णन ।६
२. अधिकरणप्रकृतसूत्र-अधिकरण-क्लेश की शान्ति न करते हुए स्वगण को छोड़कर अन्य गण में जाने वाले भिक्षु, उपाध्याय, आचार्य आदि से सम्बन्धित प्रायश्चित्त, क्लेश के कारण गच्छ का त्याग न करते हुए क्लेशयुक्त चित्त
१. गा० ५४९७-५५६५. २. गा० ५५६६-५५९३. ३. गा० ५५९४-५६१७. ४. गा० ५६१८-५६६४. ५. गा० ५६६५-५६८१. ६. गा० ५६८२-५७२५.
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