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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
२. पाराञ्चिकप्रकृतसूत्र - दुष्ट, प्रमत्त और अन्योन्यकारक पारांचिक प्रायश्चित्त के योग्य है । पारांचिक के आशातनापारांचिक और प्रतिसेवनापारांचिक ये दो भेद है | आशातनापारांचिक का सम्बन्ध १. तीर्थंकर, २. प्रवचन, ३. श्रुत, ४. आचार्य, ५. गणधर और ६. महद्धिक से है । प्रतिसेवनापारांचिक के तीन भेद हैं : दुष्ट, प्रमत्त और अन्योन्यकारक । दुष्टपारांचिक दो प्रकार का है : कषायदुष्ट और विषयदुष्ट । प्रमाद पाँच प्रकार का है : कषाय, विकथा, विकट, इन्द्रियाँ और निद्रा । प्रस्तुत अधिकार स्त्यानद्धि निद्रा का है । अन्योन्यकारक - पारांचिक का उपाश्रय, कुल, निवेशन, लिंग, तप, काल आदि दृष्टियों से विचार किया गया है । "
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३. अनवस्थाप्यप्रकृतसूत्र - अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य तीन प्रकार के अपराध हैं : साधर्मिकस्तैन्य, अन्यधार्मिकस्तैन्य और हस्तावाल | साधर्मिकस्तन्य का निम्न द्वारों से विचार किया गया है : १. साधर्मिकोपधिस्तैन्य, २. व्यापारणा, ३. ध्यामना, ४. प्रस्थापना, ५. शैक्ष, ६. आहारविधि । अन्यधार्मिकस्तैन्य का प्रव्रजितान्यधार्मिकस्तैन्य और गृहस्थान्यधार्मिकस्तन्य की दृष्टि से विवेचन किया गया है । हस्ताताल का अर्थ है हस्त, खड्ग आदि से आताडन । हस्ताताल के स्वरूप के साथ ही आचार्य ने हस्तालम्ब और अर्थादान का स्वरूप भी बताया है।
४. प्रव्राजनादिप्रकृतसूत्र --पंडक, क्लीब और वातिक प्रव्रज्या के लिए अयोग्य हैं। पंडक के सामान्यतया छः लक्षण हैं : १. महिलास्वभाव, २. स्वर - भेद, ३. वर्णभेद, ४. महन् मेढ़ - प्रलम्ब अङ्गादान, ५. मृदुवाक्, ६. सशब्द और अफेनक मूत्र | पंडक के दो भेद हैं : दूषितपंडक और उपघातपंडक । दूषितपंडक के पुनः दो भेद हैं : आसिक्त और उपसिक्त । उपघातपंडक के भो दो भेद हैं : वेदोपघातपंडक और उपकरणोपघातपंडक । वेदोपघातपंडक का स्वरूप बताते हुए आचार्य ने हेमकुमार का उदाहरण दिया है तथा उपकरणोपघातपंडक का वर्णन करते हुए एक ही जन्म में पुरुष, स्त्री और नपुंसक वेद का अनुभव करनेवाले कपिल का दृष्टान्त दिया है। मैथुन के विचार मात्र से जिसके अंगादान में विकार उत्पन्न हो जाता है तथा बीजबिन्दु गिरने लग जाते हैं वह क्लोब है । महामोहकमं का उदय होने पर ऐसा होता है । सनिमित्तक अथवा अनिमित्तक मोहोदय से किसी के प्रति विकार उत्पन्न होने पर जब तक उसको प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक मानसिक स्थिरता नहीं रहती । इसी को वार्तिक कहते हैं । अपवादरूप से पंडक आदि को दीक्षा दी जा सकती है किन्तु उनके रहन-सहन आदि की
१. गा० ४९६९-५०५७.
२. गा० ५०५८-५१३७.
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