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पंचम प्रकरण
व्यवहारभाष्य व्यवहार सूत्र भी बृहत्कल्प सूत्र की ही भांति साधु-साध्वियों के आचार से सम्बन्ध रखता है । इसमें दस उद्देश है । इन उद्देशों में आलोचना, प्रायश्चित्त, गच्छ, पदवी, विहार, मृत्यु, उपाश्रय, उपकरण, प्रतिमाएं आदि विषयों का वर्णन किया है। प्रस्तुत भाष्य' इन्हीं विषयों पर विशेष प्रकाश डालता है। व्यवहारभाष्य के कर्तृत्व के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। बृहत्कल्प-लघुभाष्य का परिचय देते समय हमने जैन श्रमणों के आचार सम्बन्धी नियमों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है । व्यवहारभाष्य के परिचय में उन्हीं विषयों की ओर विशेष ध्यान दिया जायेगा जिनका विशेष विवेचन बृहत्कल्प के भाष्य में नहीं किया गया है। पीठिका :
बृहत्कल्पभाष्यकार की भाँति व्यवहारभाष्यकार ने भी अपने भाष्य के प्रारम्भ में पीठिका दी है। पीठिका में सर्वप्रथम व्यवहार, व्यवहारी और व्यवहर्तव्य का निक्षेप-पद्धति से स्वरूप वर्णन किया गया है। जो स्वयं व्यवहार से अभिज्ञ है वह गीतार्थ है। जिसे व्यवहार का कोई ज्ञान नहीं है वह अगीतार्थ है । अगीतार्थ के साथ पुरुष को व्यवहार नहीं करना चाहिए क्योंकि यथोचित व्यवहार करने पर भी वह यही समझेगा कि मेरे साथ उचित व्यवहार नहीं किया गया । अतः गीतार्थ के साथ ही व्यवहार करना चाहिए।
व्यवहार आदि में दोषों की सम्भावना रहती है अतः उनके लिए प्रायश्चित्तों का भी विधान किया जाता है। इसी तथ्य को दृष्टि में रखते हुए भाष्यकार ने प्रायश्चित्त का अर्थ, भेद, निमित्त, अध्ययनविशेष, तदर्हपर्षद आदि दृष्टियों से विवेचन किया है। प्रस्तुत भाष्य में प्रायश्चित्त का ठीक वही अर्थ
१. नियुक्ति-भाष्य-मलयगिरिविवरणसहित : संशोधक-मुनि माणेक; प्रकाशक
केशवलाल प्रेमचन्द मोदी व त्रिकमलाल उगरचन्द, अहमदाबाद, वि० ___ सं० १९८२-५. २. प्रथम विभाग : गा० २७. ३. गा० ३४.
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