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व्यवहारभाष्य
२३७.
प्रायश्चित्त करने वाले पुरुष दो प्रकार के होते हैं : कृतकरण और अकृतकरण । कृतकरण के पुनः दो भेद हैं : सापेक्ष और निरपेक्ष । जिनादि निरपेक्ष कृतकरण हैं। सापेक्ष कृतकरण तीन प्रकार के हैं : आचार्य, उपाध्याय और भिक्षु । अकृतकरण दो प्रकार के हैं : अनधिगत और अधिगत । जिन्होंने सूत्रार्थ का ग्रहण नहीं किया होता है वे अनधिगत हैं। गृहीतसूत्रार्थ अधिगत कहलाते हैं । अथवा प्रायश्चित्त करने वाले पुरुष दो प्रकार के हैं : सापेक्ष और निरपेक्ष । निरपेक्ष पुरुष नियमतः कृतकरण होते हैं। सापेक्ष पुरुष तीन प्रकार के हैं : आचार्य, उपाध्याय और भिक्षु । ये तीनों दो प्रकार के हैं : कृतकरण और अकृतकरण । ये दोनों पुनः दो प्रकार के हैं : गीतार्थ और अगीतार्थ । इन दोनों के पुनः दो भेद हैं : स्थिर और अस्थिर ।' इन भेद-प्रभेदों का वर्णन करने के बाद आचार्य ने परिहारतप का बहुत विस्तार से विवेचन किया है। तदनन्तर साधुओं और साध्वियों की निस्तारणविधि का प्रतिपादन किया है । विविध भावनाओं का विवेचन करते हुए आचार्य ने मासिकी, द्वैमासिको आदि प्रतिमाओं का परिचय दिया है तथा शिथिलतावश गच्छ छोड़ कर पुनः गच्छ में सम्मिलित होने वाले श्रमण के लिए विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों का विधान किया है । पार्श्वस्थ, यथाच्छन्द, कुशील, अवसन्न और संसक्त की व्युत्पत्ति, उत्पत्ति, प्रायश्चित्त आदि पर भी भाष्यकार ने पर्याप्त प्रकाश डाला है । पार्श्वस्थ के दो भेद हैं : देशतः पार्श्वस्थ और सर्वतः पाश्वस्थ । सर्वतः पार्श्वस्थ के तीन विकल्प हैं : पार्श्वस्थ, प्रास्वस्थ और पाशस्थ । जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप आदि के पार्श्व अर्थात् तट पर विचरता है वह पार्श्वस्थ है । जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि के प्रति स्वस्थ भाव तो रखता है किन्तु उनमें उद्यमशील नहीं होता अर्थात् उनकी प्राप्ति के लिए परिश्रम नहीं करता वह प्रास्वस्थ है । जो मिथ्यात्व आदि बन्धहेतुरूप पाशों में स्थित होता है वह पाशस्थ है । देशतः पाश्वस्थ शय्यातरपिण्ड आदि का भोग करता हुआ विचरता है। जो स्वयं उत्सूत्र का आचरण करता है अर्थात् परिभ्रष्ट है तथा दूसरों को भी वैसे ही आचरण की शिक्षा देता है वह यथाच्छन्द है । जो ज्ञानाचार आदि की विराधना करता है वह कुशील है। अवसन्न दो प्रकार का है : देशतः और सर्वतः । आवश्यकादि में हीनता, अधिकता, विपर्यय आदि दोषों का सेवन करने वाला देशावसन्न कहलाता है । जो समय पर संस्तारक आदि का प्रत्युपेक्षण नहीं करता वह सर्वावसन्न है। जो पावस्थादि का संसर्ग प्राप्त कर उन्हीं के समान हो जाता है वह संसक्त कहलाता है । संसक्त दो प्रकार का है : असंक्लिष्ट और संक्लिष्ट । जो पार्श्वस्थ में मिल कर पाश्वस्थ हो जाता है, यथाच्छन्द में मिल कर यथाच्छन्द
१. गा० ४१८-४२०.
२. तृतीय विभाग : गा० २२६-२३०.
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