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व्यवहारभाष्य
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मैथुनसेवन के दोषों का स्वरूप बताते हुए आचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक, साधु आदि के लिए भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्तों, परिस्थितियों एवं प्रव्रज्या के नियमों पर प्रकाश डाला गया है । मैथुनसेवन के दो भेद है : सापेक्ष और निरपेक्ष । जो मैथुनसेवन की इच्छा होने पर अपने गुरु से पूछ लेते हैं वे सापेक्ष मैथुनसेवक हैं। जो गुरु से बिना पूछे ही मैथुन का सेवन करते रहते हैं वे निरपेक्ष मैथुनसेवक हैं । इन दोनों प्रकार के साधुओं के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रायश्चित्त हैं। इसी प्रकार गणावच्छेदक, उपाध्याय, आचार्य आदि के लिए भी विभिन्न प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है। मृषावाद आदि अन्य अतिचारों के सेवन का वर्णन करते हुए तत्सम्बन्धी विविध प्रायश्चित्तों का विवेचन किया गया है। व्यवहारी और अव्यवहारी का स्वरूप बताते हुए भाष्यकार ने एक आचार्य का उदाहरण दिया है । आचार्य के पास सोलह शिष्य बैठे हुए थे जिनमें से आठ व्यवहारी थे और आठ अव्यवहारी। निम्नलिखित आठ प्रकार के व्यवहारियों की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए : १. कंकटुक, २. कुणप, ३, पक्क, ४. उत्तर, ५. चार्वाक, ६. बधिर, ७. गुण्ठसमान, ८. अम्लसमान । इन आठों प्रकार के व्यवहारियों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। चतुर्थ उद्देश :
इस उद्देश में मुख्यरूप से साधुओं के विहार का विधि-विधान है। शीत और उष्णकाल के आठ महीनों में आचार्य और उपाध्याय को कोई अन्य साधु साथ में न हो तो विहार नहीं करना चाहिए । गणावच्छेदक को अन्य साधु साथ में हो तो भी विहार नहीं करना चाहिए। उसे साथ में दो साधु होने पर ही विहार करना चाहिए । इसी प्रकार आचार्य और उपाध्याय को अन्य साधु साथ में हो तो भी अलग चातुर्मास नहीं करना चाहिए। उन्हें अन्य दो साधुओं के साथ में होने पर ही अलग चातुर्मास करना चाहिए। गणावच्छेदक के लिए चातुर्मास में कम-से-कम तोन साधुओं का सहवास अनिवार्य है। साधु जिस नायक के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा रहे हो उसका मार्ग में देहावसान हो जाए तो उन साधुओं को अपने में से श्रेष्ठ गीतार्थ और चारित्रवान् को नायक बना लेना चाहिए। इस प्रकार के योग्य नायक का अभाव प्रतीत होने पर उन्हें जहाँ अपने अन्य साधु विचरते हों वहाँ चले जाना चाहिए। वैसा न करने पर छेद अथवा परिहार तप का प्रायश्चित्त करना पड़ता है । इसी प्रकार चातुर्मास में किसी नायक का देहावसान हो जाए तो योग्य साधु को नया नायक नियुक्त कर लेना चाहिए। कदाचित् वैसा न हो सके तो अपने समुदाय के अन्य साधुओं के
१. गा० २३८-२५४.
२. गा० २५५-२७८.
३. गा० ३३८-३७२.
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