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व्यवहारभाष्य
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तरिक | व्यक्ति क्षिप्तचित्त क्यों होता है ? आचार्य ने क्षिप्तचित्त होने के तीन कारण बताये हैं : राग, भय अथवा अपमान । इन तीन प्रकार के कारणों से व्यक्ति क्षिप्तचित्त होता है । इनका स्वरूप समझाने के लिए विविध उदाहरण भी दिये गये हैं । क्षिप्तचित्त को अपने हीनभाव से किस प्रकार मुक्त किया जा सकता है, इसका भाष्यकार ने विविध दृष्टान्त देते हुए अत्यन्त रोचक एवं मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है ।" क्षिप्तचित्त से ठीक विरोधी स्वभाव वाले दीप्तचित्त का विश्लेषण करते हुए आचार्य कहते हैं कि क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त में यह अन्तर है कि क्षिप्तचित्त प्रायः मौन रहता है जबकि दीप्तचित्त अनावश्यक
सर्वथा विपरीत है, यक्षाविष्ट, उन्मत्त,
क-झक किया करता है । दीप्तचित्त होने के कारणों पर प्रकाश डालते हुए बताया गया है कि क्षिप्तचित्त होने का मुख्य कारण अपमान है जबकि विशिष्ट सम्मान के मद के कारण व्यक्ति दीप्तचित्त बनता है । लाभमद से मत्त होने पर अथवा दुर्जय शत्रुओं की जीत के मद से उन्मत्त होने पर अथवा इसी प्रकार के किसी अन्य कारण से व्यक्ति दीप्तचित्त बनता है । आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में कहा जाए तो महद्भाव जो कि हीनभाव से दीप्तचित्त होने का मूल कारण है । इसी प्रकार आचार्य ने मोहित, उपसर्गप्राप्त, साधिकरण, सप्रायश्चित्त, अर्थजात, अनवस्थाप्य, पारांचित आदि की शुश्रूषा यतना आदि का वर्णन किया है । 3 सूत्रस्पर्शिक विवेचन करते हुए भाष्यकार ने एकपाक्षिक के दो भेद किये हैं : सूत्रविषयक । इसी प्रसंग पर आचार्य, उपाध्याय आदि की दोष, प्रायश्चित्त, अपवाद आदि तथा पारिहारिक और अपारिहारिक के पारस्परिक व्यवहार, खान-पान, रहन-सहन आदि का भी विचार किया गया है । ४ तृतीय उद्देश :
प्रव्रज्याविषयक और स्थापना की विधि,
गणधारण की इच्छा करने वाले भिक्षु की योग्यता- अयोग्यता का निरूपण करते हुए भाष्यकार ने सर्वप्रथम 'इच्छा' का नामादि निक्षेपों से व्याख्यान किया है । तदनन्तर 'गण' का निक्षेप-पद्धति से विवेचन किया है । गणधारण क्यों किया जाता है, इसका उत्तर देते हुए भाष्यकार ने बताया है कि निर्जरा के लिए ही गणधारण किया जाता है, न कि पूजा आदि के निमित्त । गणधारण करने वाला यति महातडाग के समान होता है जो अनेक प्रकार की विघ्नबाधाओं में भी गंभीर एवं शान्त रहता है । इसी प्रकार आचार्य ने अन्य अनेक उदाहरण देकर
१. गा० १०३ - ११६. ३. गा० १६६-२११.
२. गा० १४९ - १५१. ४. गा० ३२१ - ३८२.
५. चतुर्थ विभाग - तृतीय उद्देश : गा० ६-१६.
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