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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
वैयावृत्य करना, ( ४ ) उनके साथ उपाश्रय के भीतर रहना, ( ५ ) उनके साथ उपाश्रय के बाहर रहना । गणावच्छेदक के अन्तिम दो अतिशय होते हैं ।
ग्राम, नगर आदि में चारों ओर दीवाल से घिरे एक ही द्वार वाले मकान में आचार्य से भिन्न खण्ड में अगीतार्थं साधुओं का निवास निषिद्ध है । यदि उनमें कोई गीतार्थं साधु हो तो ऐसा कोई निषेध नहीं है । केवल अगीतार्थ साधुओं के इस प्रकार के स्थान में निवास करने पर उन्हें छेद अथवा परिहारतप के प्रायश्चित्त का भागी बनना पड़ता है । इसी प्रकार अनेक द्वारों से युक्त घर आदि में रहने के लिए भी गीतार्थं का साहचर्य अनिवार्य है । एतद्विषयक विस्तृत विवेचन बृहत्कल्पलघुभाष्य का परिचय देते समय किया जा चुका है ।"
अनेक स्त्री-पुरुषों को किसी स्थान पर मैथुन सेवन करते हुए देखकर यदि कोई साधु विकारयुक्त हो हस्तकर्म आदि से अपने वीर्य का क्षय करे तो उसके लिए एक मास के अनुद्धाती परिहारतप के प्रायश्चित्त का विधान है; यदि वह किसी अचित्त प्रतिमादि में अपने शुक्रपुद्गलों को बहाता हुआ मैथुनप्रतिसेवना में प्रसक्त होता है तो उसके लिए चार मास के अनुद्धाती परिहारतप के प्रायश्चित्त का विधान है ।
अन्य गण से आये हुए क्षीण आचार वाले साधु-साध्वियों को बिना उनकी परिशुद्धि किए अपने गण में नहीं मिलाना चाहिए और न उनके साथ आहार आदि ही करना चाहिए । जो साधु-साध्वी अपने दोषों को खुले दिल से आचार्य के सामने रख दें तथा यथोचित प्रायश्चित्त करके पुनः वैसा कृत्य न करने को प्रतिज्ञा करें उन्हीं के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ना चाहिए ।
भाष्यकार ने षष्ठ उद्देश की व्याख्या में निम्न विषयों का भी समावेश किया है : 'ज्ञातविधि' पद का एकादश द्वारपुर्वक व्याख्यान - १. आक्रन्दनस्थान, २. क्षिप्त, ३. प्रेरणा, ४. उपसर्ग, ५. पथिरोदन, ६. अपभ्राजना, ७ घात, ८. अनुलोम, ९. अभियोग्ग, १०. विष, ११. कोप; सप्तविध कूरों की गणना - शालिकूर, व्रीहिकूर, कोद्रवकूर, यवकूर गोधूमकूर, रालककूर और आरण्यव्रीहिकूर; आचार्य की वसति के बाहर रहने से लगने वाले दोष; आचार्य स्वयं भिक्षा के लिए जाए अथवा न जाए, जाने के कारण, न जाने के कारण, तत्सम्बन्धी दोष और प्रायश्चित्त; अभ्युत्थान के निराकरण के कारण; चार प्रकार की विकथा की व्याख्या; आक्षेप, आरोपणा, प्ररूपणा आदि पदों का व्याख्यान; आचार्य के पाँच अतिशय - उत्कृष्ट भक्त, उत्कृष्ट पान, मलिनोपधिधावन, प्रशंसन और हस्तपादशौच; मतिभेद, पूर्वव्युद्ग्राह, संसर्ग और अभिनिवेश के कारण
१. देखिए — वगडा प्रकृतसूत्र : गा० २१२५ - २२८९ ( बृहत्कल्प - लघुभाष्य ).
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