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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास दशम उद्देश :
इस उद्देश में यवमध्य-प्रतिमा और वज्रमध्य-प्रतिमा की विधि पर विशेष रूप से विचार किया गया है। पांच प्रकार के व्यवहर का विस्तृत विवेचन करते हुए बालदीक्षा की विधि पर भी प्रकाश डाला गया है। दस प्रकार की सेवा का वर्णन करते हुए उससे होने वाली महानिर्जरा का भी निरूपण किया गया है।
यवमध्य-प्रतिमा का स्वरूप बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि इस प्रतिमा को यव और चन्द्र की उपमा दी गई है। जिसका मध्ययव के समान है वह यवमध्यप्रतिमा है । इसका आकार चन्द्र के समान होता है । वज्रमध्य-प्रतिमा मध्य में वज्र के समान होती है। इसे भी चन्द्र की उपमा दी जाती है। यवमध्य-प्रतिमा मध्य में विपुल-स्थूल होती है तथा आदि और अन्त में तनु-कृश होती है । जिस प्रकार शुक्ल पक्ष का चन्द्र क्रमशः वृद्धि की ओर जाकर पुनः ह्रास की ओर आता है उसी प्रकार यवमध्य-प्रतिमा भी क्रमशः भिक्षा की वृद्धि की ओर जाती हुई पुनः ह्रास को ओर आती है । वज्रमध्य-प्रतिमा में चन्द्र की उपमा दूसरी तरह से घटित होती है। इसमें बहुलपक्ष का आदि में ग्रहण होता है । जिस प्रकार कृष्णपक्ष का चन्द्र पहले क्रमशः ह्रास को प्राप्त होता है और फिर क्रमशः बढ़ता है उसी प्रकार वज्रमध्य-प्रतिमा में भी क्रमशः भिक्षा का ह्रास होकर पुनः उसकी वृद्धि होती है । इस प्रकार यह प्रतिमा आदि और अन्त में तो स्थूल होती है किन्तु मध्य में कृश होती है।'
व्यवहार पाँच प्रकार का है : आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत । इन पांचों प्रकारों का स्वरूपवर्णन जीतकल्पभाष्य का परिचय देते समय किया जा चुका है अतः यहां उसकी पुनरावृत्ति अनावश्यक है।
निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के होते हैं : पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक । इनके लिए विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है । प्रायश्चित्त दस प्रकार के हैं : १. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. मिश्र, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ९. अनवस्थाप्य और १०. पारंचित या पारांचिक । पुलाक के लिए आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक, तप और व्युत्सर्ग-ये छः प्रकार के प्रायश्चित्त हैं । बकुश और कुशील के लिए सभी अर्थात् दस प्रायश्चित्त हैं । यथालन्द-कल्प में आठ प्रकार के प्रायश्चित्त हैं ( क्योंकि उसमें अनवस्थाप्य और पारंचित का अभाव है)। निर्ग्रन्थ के लिए आलोचना और विवेक इन दो प्रायश्चित्तों का विधान है । स्नातक के लिए केवल एक प्रायश्चित्त
१. दशम उद्देश : गा० ३-५. २. गा० ५३. ३. जीतकल्पभाष्य, गा० ७-६९४ तथा प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० २०३-२०७.
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