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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास गणधारण करने वाले की योग्यता का दिग्दर्शन कराया है । भावपरिच्छिन्न शिष्य के विद्यमान होने पर आचार्य को उसे गणधारण की अनुमति देनी चाहिए तथा अपने पास शिष्य होने पर कम से कम तीन शिष्य उसे देने चाहिए। ऐसा क्यों ? इसलिए कि तीन शिष्यों में से एक किसी भी समय उसके पास रह सके तथा दो भिक्षा आदि के लिए जा सकें।'
__ आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर आदि पदवियों के धारण करने वालों की योग्यता-अयोग्यता का विचार करते हुए आचार्य कहते हैं कि जो एकादशाङ्गसूत्रार्थधारी हैं, नवम पूर्व के ज्ञाता है, कृतयोगी हैं, बहुश्रुत हैं, बह्वागम हैं, सूत्रार्थविशारद है, धीर है, श्रुतनिघर्ष हैं, महाजन-नायक हैं वे आचार्य, उपाघ्याय आदि पदों के योग्य हैं । ___ आचार्य आदि की स्थापना का वर्णन करते हुए भाष्यकार ने नव, डहरक, तरुण, मध्यम, स्थविर आदि विभिन्न अवस्थाओं का स्वरूप बताया है और लिखा है कि आचार्य के मर जाने पर विधिपूर्वक अन्य गणधर का अभिषेक करना चाहिए। वैसा न करने वालों के लिए प्रायश्चित्त का विधान है। अन्य गणधर की स्थापना किये बिना आचार्य की मृत्यु का समाचार प्रकाशित नहीं करना चाहिए । इस विधान की पुष्टि के लिए राजा का दृष्टान्त दिया गया है। अन्य गणधर को स्थापना किये बिना आचार्य की मृत्यु का समाचार प्रकाशित करने से गच्छक्षोभ का सामना करना पड़ता है। कोई यह सोचने लगता है कि हम लोग अब अनाथ हो गए। कुछ लोग स्वच्छन्दचारिता का प्रश्रय ले लेते हैं । कोई क्षिप्तचित्त हो जाते हैं। कभी-कभी स्वपक्ष और परपक्ष में स्तेन उठ खड़े होते हैं । कुछ साधु लता की भाँति काँपने लगते है। कुछ तरुण आचार्य की पिपासा से अन्यत्र चले जाते हैं ।
प्रवर्तिनी के गुणों का वर्णन करते हुए भाष्यकार ने साध्वियों की दुर्बलताओं का चित्रण किया है तथा स्त्रियों के विषय में लिखा है कि स्त्री उत्पन्न होने पर पिता के वश में होती है, विवाहित होने पर पति में वश के हो जाती है तथा विधवा होने पर पुत्र के वश में हो जाती है । इस प्रकार नारी कभी भी खुद के वश में नहीं रहती। पैदा होने पर नारो को माता-पिता रक्षा करते हैं, विवाह हो जाने पर पति, श्वसुर, श्वश्रू आदि रक्षा करते है, विधवा हो जाने पर पिता, भ्राता, पुत्र आदि रक्षा करते हैं । इसी प्रकार आयिका को भी आचार्य, उपाध्याय, गणिनी-प्रवर्तिनी आदि रक्षा करते हैं।
१. गा० १०-१. ३. गा० २२०-१.
२. गा० १२२-३. ४. गा० २३३-४.
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