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व्यवहारभाष्य
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मासिकादि प्रायश्चित्त का सेवन करते हुए प्रायश्चित्त में वृद्धि-हानि क्यों होती है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि इस वृद्धि-हानि का कारण सर्वज्ञों ने राग-द्वेष हर्ष आदि अध्यवसायों की मात्रा बताया है । '
अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार — इन चार प्रकार के आधा-. कर्मादि विषयक अतिचारों के लिए भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्तों का विधान है । अतिक्रम के लिए मासगुरु, व्यतिक्रम के लिए मासगुरु और काललघु, अतिचार के लिए तपोगुरु और कालगुरु और अनाचार के लिए चतुर्गुरु प्रायश्चित्त है । ये सब प्रायश्चित्त स्थविरकल्पिकों की दृष्टि से हैं । जिनकल्पिकों के लिए भी इनका विधान है किन्तु प्रायः वे इन अतिचारों का सेवन नहीं करते ।
किस प्रकार के दोष के लिए किस प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान किया जाता है, इसे समझाने के लिए भाष्यकार ने वातादि रोग की उपशान्ति के लिए.. प्रयुज्यमान घृतकुट के चार भंगों का दृष्टांत दिया है । ये चार भंग इस प्रकार हैं : कभी एक घृतकुट से एक रोग का नाश होता है, कभी एक घृतकुट से अनेक रोगों का नाश होता है, कभी अनेक घृतकुटों से एक रोग दूर होता है और कभी अनेक घृतकुटों से अनेक रोग नष्ट हो जाते हैं । इसी प्रकार विविध दोषों के लिए विविध प्रायश्चित्तों का विधान किया जाता 13 मूलगुण और उत्तरगुण के सम्बन्ध की चर्चा करते हुए आचार्य ने बताया है कि एक की रक्षा एवं परिवृद्धि के लिए दूसरे का परिपालन आवश्यक है । यही कारण है कि दोनों प्रकार के गुणों के दोषों की परिशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया गया है और बताया गया है कि दोनों की शुद्धि से ही चारित्र शुद्ध रहता है ।"
उत्तरगुणों की संख्या की ओर अपना ध्यान खींचते हुए भाष्यकार कहते हैं कि पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा और अभिग्रह उत्तरगुणान्तर्गत हैं । इनके क्रमशः बयालीस, आठ, पचीस, बारह, बारह और चार भेद हैं ।" प्रायश्चित्त करने वाले पुरुष दो प्रकार के होते हैं : निर्गत और वर्तमान । जो तपोर्ह प्राय-श्चित्त से अतिक्रान्त हो चुके होते हैं उन्हें निर्गत कहते हैं तथा जो उसमें विद्यमान होते हैं उन्हें वर्तमान कहते हैं। वर्तमान के पुनः दो भेद हैं : संचयित और असंचयित । ये दोनों पुनः दो-दो प्रकार के हैं : उद्घात और अनुद्घात । निर्गत तप से तो निकल जाते हैं किन्तु छेदादि प्रायश्चित्तों में विद्यमान रहते हैं । संचायित, असंचयित प्रायश्चित्त के लिए यथावसर एक मास से छः मास तक की प्रस्थापना. होती है जबकि संचयित प्रायश्चित्त के लिए नियमतः छः मास की प्रस्थापनाहोती है।
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१. गा० १६६.
४. गा० २८१-८.
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२. गा० २५१-३.
५. गा० २८९-२९०.
३. गा० २५७-२६२. ६. गा० २९१-४.
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