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बृहत्कल्प-लघुभाष्य
२३१ आदि के उद्धरण से सम्बन्धित उत्सर्गमार्ग, विपर्यासजन्य दोष, प्रायश्चित्त, अपवाद, यतनाएँ आदि बातों का विचार किया गया है।
४. दूर्गप्रकृतसूत्र--इस प्रसंग पर यह बताया गया है कि श्रमण-श्रमणियों को दुर्ग अर्थात् विषम मार्ग से नहीं जाना चाहिये । इसी प्रकार पंक आदि वाले मार्ग से भी नहीं जाना चाहिए।
५. क्षिप्तचित्तादिप्रकृतसूत्र-विविध कारणों से क्षिप्तचित्त हुई निर्ग्रन्थी को समझाने का क्या मार्ग है, क्षिप्तचित्त निर्ग्रन्थी की देख-रेख की क्या विधि है, दीप्तचित्त होने के क्या कारण हैं, दीप्तचित्त श्रमणी के लिए किन यतनाओं का परिपालन आवश्यक है-आदि प्रश्नों का विचार करते हुए आचार्य ने उन्माद, उपसर्ग, अधिकरण-क्लेश, प्रायश्चित्त, भक्तपान, अर्थजात आदि विषयों की दृष्टि से निग्रन्थीविषयक विधि-निषेधों का विवेचन किया है।
६ परिमन्थप्रकृतसूत्र-साधुओं के लिए छः प्रकार के परिमन्थ अर्थात् व्याघात माने गए हैं : १. कौकुचिक, २. मौखरिक, ३. चक्षुर्लोल, ४. तितिणिक, ५. इच्छालोभ, ६. भिज्जानिदानकरण । प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या में इन परिमन्थों के स्वरूप, दोष, अपवाद आदि का विचार किया गया है।
७. कल्पस्थितिप्रकृतसूत्र-इस सूत्र का व्याख्यान करते हुए भाष्यकार ने निम्नलिखित छः प्रकार की कल्पस्थितियों का वर्णन किया है : १. सामायिककल्पस्थिति, २. छेदोपस्थापनीयकल्पस्थिति, ३. निर्विशमानकल्पस्थिति, ४. निविष्टकायिककल्पस्थिति, ५. जिनकल्पस्थिति, ६. स्थविरकल्पस्थिति । छेदोपस्थापनीयकल्पस्थिति का दस स्थानों द्वारा निरूपण किया है : १. आचेलक्यकल्पद्वारअचेलक का स्वरूप, अचेलक-सचेलक का विभाग, वस्त्रों का स्वरूप आदि, २. औद्देशिककल्पद्वार, ३. शय्यातरपिण्डकल्पद्वार, ४. राजपिण्डकल्पद्वारराजा का स्वरूप, आठ प्रकार के राजपिण्ड आदि, ५. कृतिकल्पद्वार, ६. व्रतकल्पद्वार-पंचवतात्मक और चतुर्वतात्मक धर्म की व्यवस्था, ७. ज्येष्ठकल्पद्वार, ८. प्रतिक्रमणकल्पद्वार, ९. मासकल्पद्वार, १०. पयुषणाकल्पद्वार । बृहत्कल्प सूत्र के प्रस्तुत भाष्य की समाप्ति करते हुए आचार्य ने कल्पाध्ययन शास्त्र के अधिकारी और अनधिकारी का संक्षिप्त निरूपण किया है।"
बृहत्कल्प-लघुभाष्य के इस सारग्राही संक्षिप्त परिचय से स्पष्ट है कि इसमें जैन साधुओं-मुनियों-श्रमणों-निर्ग्रन्थों-भिक्षुओं के आचार-विचार का अत्यन्त सूक्ष्म एवं सतर्क विवेचन किया गया है । विवेचन के कुछ स्थल ऐसे भी हैं जिनका
१. गा० ६१६३-६१८१. २. गा० ६१८२-६१९३. ३. गा० ६१९४६३१०. ४. गा० ६३११-६३४८. ५. गा० ६३४९-६४९०.
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