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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ८. मोकप्रकृतसूत्र-निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के लिए परस्पर मोक के आचमन आदि का निषेध ।
९. परिवासितप्रकृतसूत्र-परिवासित आहार का स्वरूप, परिवासित आहार और अनाहार विषयक दोष, अपवाद आदि, परिवासित आलेपनद्रव्य के उपयोग का निषेध, परिवासित तेल आदि से अभ्यंगन आदि करने का निषेध ।
१०. व्यवहारप्रकृतसूत्र-परिहारकल्पस्थित भिक्षु को लगने वाले कारणजन्य अतिक्रमादि दोष और उनका प्रायश्चित्त आदि ।
११. पुलाकभक्तप्रकृतसूत्र-धान्यपुलाक, गंधपुलाक और रसपुलाक का स्वरूप, पुलाकभक्तविषयक दोषों का वर्णन, निर्ग्रन्थियों के लिए पुलाकभक्त का निषेध । षष्ठ उद्देश :
इस उद्देश में वचन आदि से सम्बन्धित सात प्रकार के सूत्र हैं । भाष्यकार संघदासगणि क्षमाश्रमण ने इन सूत्रों की व्याख्या में जिन विषयों पर प्रकाश डाला है उनका क्रमशः परिचय इस प्रकार है :
१. वचनप्रकृतसूत्र-निग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को अलीक, हीलित, खिसित, पुरुष, अगारस्थित और व्यवशमितोदीरण वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए । इन्हें अवचन अर्थात् दुर्वचन कहा गया है। अलीक वचन के निम्नलिखित सत्रह स्थान है : १. प्रचला, २. आर्द्र, ३. मरुक, ४. प्रत्याख्यान, ५. गमन, ६. पर्याय, ७. समुदेश, ८. संखडी, ९. क्षुल्लक, १०. पारिहारिक, ११. घोटकमुखी, १२. अवश्यगमन, १३. दिग्विषय, १४. एककुलगमन, १५. एकद्रव्यग्रहण, १६. गमन, १७. भोजन ।
२. प्रस्तारप्रकृतसूत्र-इस सूत्र की व्याख्या में प्राणवधवाद, मृषावाद, अदत्तादानवाद, अविरतिवाद, अपुरुषवाद और दासवादविषयक प्रायश्चित्तों के प्रस्तारों-रचना के विविध प्रकारों का निरूपण किया गया है । साथ ही प्रस्तार. विषयक अपवादों का भो विधान किया गया है ।
३. कण्टकाद्युद्धरणप्रकृतसूत्र-इस प्रसंग पर निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थीविषयक कंटक
१. गा० ५९७६-५९९६. ३. गा०६०३३-६०४६. ५. गा०६०६०-६१२८.
२. गा० ५९९७-६०३२. ४. गा० ६०४७-६०५९. ६. गा० ६१२९-६१६२.
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