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बृहत्कल्प-लघुभाष्य
२२७ विशेष व्यवस्था करनी पड़ती है । पंडक, क्लीब और वातिक जैसे प्रव्रज्या के लिए अयोग्य हैं वैसे ही मुंडन, शिक्षा, उपस्थापना, सहभोजन, सहवास आदि के लिए भी अनुपयुक्त हैं ।
५. वाचनाप्रकृतसूत्र-अविनीत, विकृतिप्रतिबद्ध और अव्यवशमितप्राभृत वाचना के अयोग्य हैं। इसके विपरीत विनीत, विकृतिहीन और उपशान्तकषाय वाचना के योग्य है ।।
६. संज्ञाप्यप्रकृतसूत्र-दुष्ट, मूढ़ और व्युद्ग्राहित उपदेश आदि के अनधिकारी हैं। अदुष्ट, अमूढ और अव्युद्ग्राहित उपदेश आदि के वास्तविक अधिकारी है।
७. ग्लानप्रकृतसूत्र-निग्रन्थ-निर्ग्रन्थियां रुग्णावस्था में हों उस समय उनकी विविध यतनाओं के साथ सेवा करनी चाहिए।
८. काल-क्षेत्रातिक्रान्तप्रकृतसूत्र-निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के लिए कालातिकान्त तथा क्षेत्रातिक्रान्त अशनादि अकल्प्य है। जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक के लिए कालातिक्रान्त और क्षेत्रातिक्रान्त की भिन्न-भिन्न मर्यादाएँ हैं ।"
९. अनेषणीयप्रकृतसूत्र-भिक्षाचर्या में कदाचित अनेषणीय-अशुद्ध स्निग्ध अशनादि ले लिया गया हो तो उसे अनुपस्थापित (अनारोपितमहाव्रत) शिष्य को दे देना चाहिए। यदि कोई वैसा शिष्य न हो तो उसका प्राशुक भूमि में विसर्जन कर देना चाहिए।
१०. कल्पाकल्पस्थितप्रकृतसूत्र-जो अशनादि कल्पस्थित श्रमणों के लिए कल्प्य है वह अकल्पस्थित श्रमणों के लिए अकल्प्य है। इसी प्रकार जो अशनादि अकल्पस्थित श्रमणों के लिए कल्प्य है वह कल्पस्थित श्रमणों के लिए अकल्प्य है।"
११. गणान्तरोपसम्पत्प्रकृतसूत्र-किसी भी निर्ग्रन्थ को किसी कारण से अन्य गण में उपसम्पदा ग्रहण करनी हो तो आचार्य आदि से पूछकर ही वैसा करना चाहिए । ज्ञान-दर्शन-चारित्र की वृद्धि के लिए ही गणान्तरोपसम्पदा स्वीकार की जाती है। ज्ञानोपसम्पदा, दर्शनोपसम्पदा और चारित्रोपसम्पदा के ग्रहण की विभिन्न विधियाँ हैं।
१२. विष्वग्भवनप्रकृतसूत्र-इसमें मृत्युप्राप्त भिक्षु आदि के शरीर की परिष्ठापना का विचार किया गया है । इसके लिए निम्नलिखित द्वारों का आश्रय
१. गा० ५१३८-५१९६. २. गा० ५१९७-५२१०. ३. गा० ५२११-५२३५.. ४. गा० ५२३६-५२६२. ५. गा० ५२६३-५३१४. ६. गा० ५३१५-५३३८. ७. गा० ५३३९-५३६१. ८. गा० ५३६२-५४९६.
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