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बृहत्कल्प-लघुभाष्य
साधर्मिकावग्रहप्रकृतसूत्र :
जिस दिन श्रमणों ने अपनी वसति और संस्तारक का त्याग किया हो उसी दिन यदि दूसरे श्रमण वहाँ आ जायें तो भी एक दिन तक पहले के श्रमणों का ही अवग्रह बना रहता है । प्रस्तुत सूत्र - विवेचन में शैक्षविषयक अवग्रह का भी विचार किया गया है | वास्तव्य और वाताहत - आगन्तुक शैक्ष का अव्याघात आदि ग्यारह द्वारों से वर्णन किया गया है। साथ ही अवस्थितावग्रह, अनवस्थितावग्रह, राजावग्रह आदि का स्वरूप वर्णन भी किया गया है ।"
सेनादिप्रकृतसूत्र :
परचक्र, अशिव, अवमौदयं, बोधिकस्तेनभय आदि की संभावना होने पर निग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को पहले से ही उस क्षेत्र से बाहर निकल जाना चाहिए । वैसा न करने से अनेक प्रकार के दोष लगते हैं । परचक्रागमन और नगररोध की स्थिति में वहाँ से न निकल सकने की दशा में भिक्षा, भक्तार्थना, वसति, स्थण्डिल और शरीर विवेचन सम्बन्धी विविध यतनाओं का सेवन करना चाहिए । २
श्रमण-श्रमणियों को चारों दिशा-विदिशाओं में सवा योजन का अवग्रह लेकर ग्राम, नगर आदि में रहना चाहिए । इस प्रसंग पर भाष्यकार ने सव्याघात और निर्व्याघात क्षेत्र, क्षेत्रिक और अक्षेत्रिक, आभाव्य और अनाभाव्य, अचल और चल क्षेत्र, व्रजिका, सार्थ, सेना, संवर्त आदि का स्वरूप बताया है और एतत्सम्बन्धी अवग्रह की मर्यादा का निर्देश किया है ।
चतुर्थ उद्देश :
इस उद्देश में अनुद्घातिक आदि से सम्बन्ध रखनेवाले सोलह प्रकार के सूत्र हैं । भाष्यकार ने जिन विषयों का इनकी व्याख्या में समावेश किया है उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है।
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१. अनुद्घातिकप्रकृतसूत्र - इसकी व्याख्या में यह बताया गया है कि हस्तकर्म, मैथुन और रात्रिभोजन अनुद्घातिक अर्थात् गुरु प्रायश्चित्त के योग्य हैं । हस्तकर्म का स्वरूप वर्णन करते हुए असंक्लिष्ट भावहस्तकर्म के छेदन, भेदन, घर्षण, पेषण, अभिघात, स्नेह, काय और क्षाररूप आठ भेद बताये गए हैं । मैथुन का स्वरूप बताते हुए देव, मनुष्य और तिर्यञ्चसम्बन्धी मैथुन की ओर निर्देश किया गया है और बताया गया है कि मैथुनभाव रागादि से रहित नहीं होता अतः उसके लिए किसी प्रकार के अपवाद का विधान नहीं किया गया है । रात्रिभोजन का स्वरूप बताते हुए आचार्य ने तत्सम्बन्धी अपवाद, यतनाएँ, प्रायश्चित्त आदि का निरूपण किया है । *
१. गा० ४६५०-४७९४.
३. गा० ४८४०-४८७६.
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२. गा० ४७९५-४८३९.
४. गा० ४८७७-४९६८.
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