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बृहत्कल्प-लघुभाष्य
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३. निरुक्त, ४. विधि, ५. प्रवृत्ति, ६. केन, ७. कस्य, ८. अनुयोगद्वार, ९. भेद, १०. लक्षण, ११. तदहं, १२. पर्षद् ।' __ कल्प-व्यवहार के अनुयोग के लिए सुयोग्य मानी जानेवाली छत्रांतिक पर्षदा के गुणों का बहुश्रुतद्वार, चिरप्रव्रजितद्वार और कल्पिकद्वार-इन तीन द्वारों से विचार किया गया है । कल्पिकद्वार का आचार्य ने निम्न उपद्वारों से विवेचन किया है : सूत्रकल्पिकद्वार, अर्थकल्पिकट्टार, तदुभयकल्पिकद्वार, उपस्थापनाकल्पिकद्वार, विचारकल्पिकद्वार, लेपकल्पिकद्वार, पिण्डकल्पिकद्वार, शय्याकल्पिकद्वार, वस्त्रकल्पिकद्वार, पात्रकल्पिकद्वार, अवग्रहकल्पिकद्वार, विहारकल्पिकद्वार, उत्सारकल्पिकद्वार, अचंचलद्वार, अवस्थितद्वार, मेधावीद्वार, अपरिस्रावीद्वार, यश्चविद्वान्द्वार, पत्तद्वार, अनुज्ञातद्वार और परिणामकद्वार । इनमें से विचारकल्पिकद्वार का निरूपण करते हुए आचार्य ने विचारभूमि अर्थात् स्थण्डिलभूमि का सविस्तार निरूपण किया है। इस निरूपण में निम्न द्वारों का आधार लिया गया है : भेद, शोधि, अपाय, वर्जना, अनुज्ञा, कारण, यतना । शय्याकल्पिकद्वार का रक्षणकल्पिक और ग्रहणकल्पिक की दृष्टि से विचार किया है। इसी प्रकार अन्य द्वारों का भी विविध दृष्टियों से विवेचन किया गया है। यत्र-तत्र दृष्टान्तों का उपयोग भी हुआ है। उत्सारकल्पिकद्वार के योगविराधना दोष को समझाने के लिए घण्टाशृगाल का दृष्टान्त दिया गया है। परिणामकद्वार में परिणामक, अपरिणामक आदि शिष्यों की परीक्षा के लिए आम्र, वृक्ष, बीज आदि के दृष्टान्त दिये गये हैं।' छेदसूत्रों ( बृहत्कल्पादि) के अर्थश्रवण की विधि की ओर संकेत करते हुए परिणाम कद्वार के उपसंहार के साथ पोठिका की समाप्ति की गई है। प्रथम उद्देश-प्रलम्बसूत्र :
पोठिका के बाद भाष्यकार प्रत्येक मूल सूत्र का व्याख्यान प्रारम्भ करते हैं । प्रथम उद्देश में प्रलम्बप्रकृत, मासकल्पप्रकृत आदि सूत्रों का समावेश है । प्रथम प्रलम्बसूत्र की निम्न द्वारों से व्याख्या की गई है : आदिनकारद्वार, ग्रन्थद्वार, आमद्वार, तालद्वार, प्रलम्बद्वार, भिन्नद्वार । ताल, तल और प्रलम्ब का अर्थ इस प्रकार है : तल वृक्षसम्बन्धी फल को ताल कहते हैं; तदाधारभूत वृक्ष का नाम तल है; उसके मूल को प्रलम्ब कहते हैं । प्रलम्ब शब्द से यहाँ मूलप्रलम्ब का ग्रहण करना चाहिए।
प्रलम्बग्रहण सम्बन्धी प्रायश्चित्तों की ओर संकेत करते हुए तत्रप्रलम्बग्रहण अर्थात् जहाँ पर ताड़ आदि वृक्ष हों वहाँ जाकर गिरे हुए अचित्त प्रलम्बादि का
३. गा० ४००-८०२.
१. गा० १४९-३९९. ४. गा० ८०३-५
२. गा० ४१७-४६९. ५. गा० ८५०.
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