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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कुलों में जाने की विधि, एक-दो दिन छोड़ कर स्थापनाकुलों में नहीं जाने से लगने वाले दोष, स्थापनाकुलों में जाने योग्य अथवा भेजने योग्य वैयावृत्यकर और उनके गुण-दोष, वैयावृत्य करने वाले के गुणों की परीक्षा करने के कारण, श्रावकों को गोचरचर्या के दोष समझाने से होनेवाले लाभ और इसके लिए लुब्धक का दृष्टान्त, स्थापनाकुलों में से विधिपूर्वक उचित द्रव्यों का ग्रहण, जिस क्षेत्र में एक ही गच्छ ठहरा हुआ हो उस क्षेत्र की दृष्टि से स्थापनाकुलों में से भिक्षा ग्रहण करने को सामाचारी, जिस क्षेत्र में दो-तीन गच्छ एक वसति में अथवा भिन्न-भिन्न वसतियों में ठहरे हुए हों उस क्षेत्र की दृष्टि से भिक्षा लेने की सामाचारी इत्यादि । इसी प्रकार स्थविरकल्पिकों की सामान्य सामाचारो, स्थिति आदि का वर्णन किया गया है।
___ गच्छवासियों-स्थविरकल्पिकों की विशेष सामाचारो का भी भाष्यकार ने विस्तृत वर्णन किया है। इस वर्णन में निम्न बातों पर प्रकाश डाला गया है :
१. प्रतिलेखनाद्वार-वस्त्रादि की प्रतिलेखना का काल, प्राभातिक प्रतिलेखना के समय से सम्बन्धित विविध आदेश, प्रतिलेखना के दोष और प्रायश्चित्त, प्रतिलेखना में अपवाद ।
२. निष्क्रमणद्वार-गच्छवासी आदि को उपाश्रय से बाहर कब और कितनी बार निकलना चाहिए ?
३. प्राभृति काद्वार-सूक्ष्म और बादर प्राभृतिका का वर्णन, गृहस्थादि के लिए तैयार किये गए घर, वसति आदि में रहने और न रहने सम्बन्धी विधि और प्रायश्चित्त ।
४. भिक्षाद्वार-किस एषणा से पिण्ड आदि का ग्रहण करना चाहिए, कितनी बार और किस समय भिक्षा के लिए जाना चाहिए, मिलकर भिक्षा के लिए जाना, अकेले भिक्षा के लिए जाने के कल्पित कारण और तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त, भिक्षा के लिए उपकरण आदि की व्यवस्था ।
५. कल्पमरणद्वार-पात्र धोने की विधि, लेपकृत और अलेपकृत द्रव्य, पात्र-लेप से होने वाले लाभ और तद्विषयक एक श्रमण का दृष्टान्त, पात्र धोने के कारण और तद्विषयक प्रश्नोत्तर ।
६. गच्छशतिकाद्वार-सात प्रकार की सौवीरिणियाँ : १. आधार्मिक,
२. गा० १६२३-१६५५.
१. गा० १४४७-१६२२. ३. गा० १६५६-२०३३.
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