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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
उच्छ्वास आदि शुभाशुभ प्रकृतियाँ, तीर्थंकर के रूप की सर्वोत्कृष्टता का कारण, श्रोताओं के संशयों का समाधान, तीर्थंकर की एकरूप भाषा का विभिन्न भाषाभाषी श्रोताओं के लिए विभिन्न रूपों में परिणमन, तीर्थकर के आगमन से सम्बन्धित समाचारों को बताने वाले को चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि की ओर से दिया जाने वाला प्रीतिदान, देवमाल्य, देवमाल्यानयन, गणधरोपदेश और उससे होनेवाला लाभ इत्यादि । जिनकल्पिक की शास्त्रार्थविषयक शिक्षा की ओर निर्देश करते हुए भाष्यकार ने संज्ञासूत्र, स्वसमयसूत्र, परसमयसूत्र, उत्सर्गसूत्र, अपवादस्त्र, हीनाक्षरसूत्र, अधिकाक्षरसूत्र, जिनकल्पिकसूत्र, स्थविरकल्पिकसूत्र, आर्यासूत्र, कालसूत्र, बचनसूत्र आदि सूत्रों के विविध प्रकारों की ओर संकेत किया है । इसके बाद जिनकल्पिक के अनियतवास, निष्पत्ति, उपसम्पदा, विहार, भावनाओं आदि पर प्रकाश डाला है। भावनाएँ दो प्रकार की हैं : अप्रशस्त
और प्रशस्त । अप्रशस्त भावनाएँ पाँच हैं : कान्दी भावना, देवकिल्विषिकी भावना, आभियोगी भावना, आसुरी भावना और साम्मोही भावना। इसी प्रकार पाँच प्रशस्त भावनाएँ हैं : तपोभावना, सत्त्वभावना, सूत्रभावना, एकत्वभावना और बलभावना ।३ जिनकल्प ग्रहण करने की विधि, जिनकल्प ग्रहण करने वाले आचार्य द्वारा कल्प ग्रहण करते समय गच्छपालन के लिए नवीन आचार्य की स्थापना, गच्छ और नये आचार्य के लिए सूचनाएँ, गच्छ, संघ आदि से क्षमापना-इन सभी बातों का संक्षिप्त वर्णन करने के बाद जिनकल्पिक की सामाचारी पर प्रकाश डाला गया है। निम्नलिखित २७ द्वारों से इस सामाचारी का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है : १. श्रुत, २. संहनन, ३. उपसर्ग, ४. आतंक, ५. वेदना, ६. कतिजन, ७. स्थण्डिल, ८. वसति, ९. कियच्चिर, १०. उच्चार, ११. प्रस्रवण, १२. अवकाश, १३. तृणफलक, १४ संरक्षणता, १५. संस्थापनता, १६. प्राभृतिका, १७. अग्नि, १८. दीप, १९. अवधान, २०. वत्स्यथ (कतिजन), २१. भिक्षाचर्या, २२. पानक, २३. लेपालेप, २४. अलेप, २५. आचाम्ल, २६. प्रतिमा, २७. मासकल्प ।५ जिनकल्पिक की स्थिति का विचार करते हुए आचार्य ने निम्न द्वारों का आधार लिया है : क्षेत्र, काल, चारित्र, तीर्थ, पर्याय, आगम, वेद, कल्प, लिंग, लेश्या, ध्यान, गणना, अभिग्रह, प्रव्राजना, मुण्डापना, प्रायश्चित्त, कारण, निष्प्रतिकर्म और भक्त ।६ इसके बाद भाष्यकार परिहारविशुद्धिक और यथालन्दिक कल्प का स्वरूप बताते हैं तथा गच्छवासियों-स्थविरकल्पिकों की मासकल्पविषयक विधि का वर्णन प्रारम्भ करते हैं । १. गा० ११७६-१२१७.
२. गा० १२१९-१२२२. ३. गा० १२२३-१३५७.
४. गा० १३६६-१३८१. ५. गा० १३८२-१४१२.
६. गा० १४१३-१४२४.
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