________________
बृहत्कल्प-लघुभाष्य
२१३ व्यवशमनप्रकृतसूत्र : ___ इस सूत्र' में यह बताया गया है कि साधुओं में परस्पर क्लेश होने पर उपशम धारण करके क्लेश शान्त कर लेना चाहिए। जो उपशम धारण करता है वह आराधक है। जो उपशम धारण नहीं करता वह विराधक है । प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या करते हुए भाष्यकार ने निम्न विषयों का स्पष्टीकरण किया है : व्यवशमित के एकार्थक शब्द-शामित, व्यवशमित, विनाशित और क्षपित; प्राभत शब्द के पर्याय-प्राभृत, प्रहेणक और प्रणयन; अधिकरण पद के निक्षेप; द्रव्याधिकरण के निर्वर्तना निक्षेपणा, संयोजना और निसर्जना-ये चार भेद, भावाधिकरण-कषाय द्वारा जीव किस प्रकार विभिन्न गतियों में जाते हैं; निश्चय और व्यवहारनय की अपेक्षा से द्रव्य का गुरुत्व, लघुत्व, गुरुलघुत्व और अगुरुलघुत्व; जोवों द्वारा कर्म ग्रहण और तज्जन्य विविध गतियाँ; उदीणं और अनुदोर्ण कर्म; भावाधिकरण उत्पन्न होने के छः प्रकार के कारण-सचित्त, अचित्त, मित्र, वचोगत, परिहार और देशकथा; निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों में परस्पर अधिकरण-क्लेश होता हो उस समय उपेक्षा, उपहास आदि करने वाले के लिए प्रायश्चित्त; निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के पारस्परिक क्लेश की उपेक्षा करने वाले आचार्य आदि को लगने वाले दोष और तत्सम्बन्धी जलचर और हस्तियूथ का दृष्टान्त; साधु-साध्वियों के आपसी झगड़े को निपटाने की विधि; आचार्य आदि के उपदेश से दो कलहकारियों में से एक तो शान्त हो जाए किन्तु दूसरा शान्त न हो उस समय क्या करना चाहिए इस ओर संकेत; 'पर' का नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, आदेश, क्रम, बहु, प्रधान और भाव निक्षेपों से विवेचन, अधिकरण-क्लेश के लिए अपवाद । चारप्रकृतसूत्र : __ प्रथम चारसूत्र का व्याख्यान करते हुए यह कहा गया है कि श्रमणश्रमणियों को वर्षाऋतु में एक गांव से दूसरे गांव नहीं जाना चाहिए। वर्षावास दो प्रकार का होता है : प्रावृट् और वर्षा । इनमें विहार करने से तथा वर्षाऋतु पूर्ण हो जाने पर विहार न करने से लगने वाले दोषों का प्रायश्चित्त करना पड़ता है।
१. इस प्रकृत को भाष्यकार ने गा० ३२४२ में प्राभृतसूत्र के रूप में तथा चूर्णिकार और विशेषचूर्णिकार ने अधिकरणसूत्र के रूप में दिया है। मुनि श्रो पुण्यविजयजी ने सूत्र के वास्तविक आशय को ध्यान में रखते हुए इसका नाम व्यवशमनसूत्र रखता है।
-बृहत्कल्पसूत्र, ३ य विभाग, विषयानुक्रम, पृ० ३०. २. गा० २६७६-२७३१.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org