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बृहत्कल्प-लघुभाष्य
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इसका विवेचन करते हुए आचार्य ने निम्न विषयों का व्याख्यान किया है : कृत्स्न और अकृत्स्न पदों की भिन्न और अभिन्न पदों के साथ चतुर्भङ्गी; अभिन्न पद का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावदृष्टि से विचार; तद्ग्रहणसम्बन्धी विधि, प्रायश्चित्त आदि; भिन्न वस्त्र उपलब्ध न होने की अवस्था में अभिन्न वस्त्र का फाड़कर उपयोग करना; वस्त्र फाड़ने से लगनेवाली हिंसा-अहिंसा की चर्चा; द्रव्यहिंसा और भावहिंसा का स्वरूप; राग, द्वेष और मोह की विविधता के कारण कर्मबन्ध में न्यूनाधिकता; हिंसा करने में रागादि की तीव्रता से तीव्र कर्मबन्ध और रागादि की मन्दता से मन्द कर्मबन्ध; हिंसक के ज्ञान और अज्ञान के कारण कर्मबन्ध में न्यूनाधिकता; हिंसक के क्षायिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक आदि भावों की विचित्रता के कारण कर्मबन्ध का वैचित्र्य; अधिकरण की विविधता के कारण कर्मबन्ध का वैविध्य; हिंसक के देहादि बल के कारण कर्मबन्ध की विविधता; जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक की उपधि और उसकी संख्या; स्थविरकल्पिक के पात्रकबन्ध और रजोहरण का माप; ग्रीष्म, शिशिर और वर्षाऋतु की दृष्टि से पटलकों की संख्या और माप; रजोहरण का स्वरूप और माप; संस्तारक, उत्तरपट्ट एवं चोलपट्ट, रजोहरण की ऊनी और सूती निषद्याएँ; मुखवस्त्रिका, गोच्छक, पात्रप्रत्युपेक्षणिका और पात्रस्थापन का माप; प्रमाणातिरिक्त उपधिसम्बन्धी अपवाद; न्यूनाधिक उपधि से लगने वाले दोष; वस्त्र का परिकर्म अर्थात सन्धि; विधिपरिकर्म और अविधिपरिकर्म; विभूषा के लिए उपधि के प्रक्षालन आदि से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त; मू युक्त होकर उपधि रखने वाले को लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त; पात्रविषयक विधि; संख्या से अधिक अथवा न्यून और माप से बड़े अथवा छोटे पात्र रखने से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त; पात्र का माप; तद्विषयक अपवाद; पात्र के सुलक्षण और अपलक्षण; तुम्ब, काष्ठ और मृत्पात्र तथा यथाकृत, अल्पपरिकर्म और सपरिकर्म पात्र, ग्रहण के क्रम-भंग से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त; पात्र लाने वाले निर्ग्रन्थ की योग्यता; पात्र की याचना का समय; पात्र-याचना के दिवस; पात्रप्राप्ति के स्थान; तन्दुलधावन; उष्णोदक आदि से भावित कल्प्य पात्र और उनके ग्रहण की विधि; पात्रग्रहणविषयक जघन्य यतना; तद्विषयक शंका समाधान; प्रमाणयुक्त पात्र की अनुपलब्धि की अवस्था में उपयोगपूर्वक पात्र का छेदन; पात्र के मुख का मान; मात्रकविषयक विधि, प्रमाण, अपवाद आदि; निर्ग्रन्थियों के लिए पचीस प्रकार की ओघोपधि, निग्रंथियों के शरीर के अधोभाग को ढंकने के लिए अवग्रहानंतक, पट्ट, अझैरुक, चलनिका; अन्तर्निवसनी और बहिनिवसनी; ऊर्ध्वभाग को ढंकने के लिए कञ्चुक, औपकक्षिकी, वैकक्षिकी, सङ्घाटी और
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