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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्रतिबद्ध की चतुभंगी और तत्सम्बन्धी विधि-निषेध, निर्ग्रन्थों को 'द्रव्यतः प्रतिबद्ध भावतः अप्रतिबद्ध' रूप प्रथम भंग वाले आश्रय में रहने से लगने वाले अधिकरणादि दोष, उनका स्वरूप और तत्सम्बन्धी यतनाएँ, 'द्रव्यतः अप्रतिबद्ध भावतः प्रतिबद्ध' रूप द्वितीय भंग वाले उपाश्रय में रहने से लगने वाले दोष, उनका स्वरूप और तत्सम्बन्धी यतनाएँ, 'द्रव्य-भावप्रतिबद्ध' रूप तृतीय भंग वाले उपाश्रय में रहने से लगने वाले दोष आदि, 'द्रव्य-भाव-अप्रतिबद्ध' रूप चतुर्थ भंग वाले उपाश्रयों की निर्दोषता का प्ररूपण ।'
द्वितीय सूत्र की व्याख्या में इसका प्रतिपादन किया गया है कि जिस उपाश्रय के समीप गृहस्थ रहते हों वहाँ निर्ग्रन्थियों का निवास विहित है। द्रव्य-प्रतिबद्ध तथा भावप्रतिबद्ध उपाश्रयों में रहने से निर्ग्रन्थियों को लगने वाले दोषों और यतनाओं का भी वर्णन किया गया है ।२ गृहपतिकूलमध्यवासप्रकृतसूत्र :
श्रमणों का गृहपतिकुल के मध्य में रहना वर्जित है। इसके विचार के लिए आचार्य ने शालाद्वार, मध्यद्वार और छिडिकाद्वार का आश्रय लिया है ।
१. शालाद्वार-श्रमणों को शाला में रहने से लगने वाले दोषों का १. प्रत्यपाय, २. वैक्रिय, ३. अपावृत, ४. आदर्श, ५. कल्पस्थ, ६. भक्त, ७. पृथिवी, ८. उदक, ९. अग्नि, १०. बीज और ११. अवहन्न-इन ग्यारह द्वारों से वर्णन किया है ।।
२. मध्यद्वार-श्रमणों को शाला के मध्य में बने हुए भवन आदि में रहने से लगने वाले दोषों का उपयुक्त ग्यारह द्वारों के उपरान्त १. अतिगमन, २. अनाभोग, ३. अवभाषण, ४. मज्जन और ५. हिरण्य-इन पाँच द्वारों से निरूपण किया है।
३. छिडिकाद्वार-छिडिका का अर्थ है पुरोहड अर्थात् वसति के द्वार पर बना हुआ प्रतिश्रय । छिडिका में रहने से लगने वाले दोषों का विविध दृष्टियों से विचार किया है। इन द्वारों से सम्बन्ध रखने वाली यतनाओं का भी वर्णन किया गया है।
श्रमणियों की दृष्टि से गृहपतिमध्यवास का विचार करते हुए आचार्य ने बताया है कि उन्हें भी गृहपतिकुल के मध्य में नहीं रहना चाहिए । शाला आदि में रहने से श्रमणियों को अनेक प्रकार के दोष लगते हैं।
१. गा० २५८३-२६१५. ३. गा० २६३३-२६४४. ५. गा० २६५३-२६६७.
२. गा० २६१६-२६२८. ४. गा० २६४५-२६५२. ६. गा० २६६८-२६७५.
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