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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
ग्रहण करते समय जिन दोषों की सम्भावना रहती है उनका स्वरूप बताया गया है । इसी प्रकार सचित्त प्रलम्बादि से सम्बन्धित बातों की ओर भी निर्देश किया गया है । देव, मनुष्य तथा तियंच के अधिकार में रहे हुए प्रलम्बादि का स्वरूप, तद्ग्रहणदोष आदि पर भी प्रकाश डाला गया है ।" प्रलम्बादि का ग्रहण करने से लगनेवाले आज्ञाभंग, अनवस्था, मिथ्यात्व और आत्मसंयमविराधना दोषों का विस्तृत वर्णन करते हुए आचार्य के अज्ञान और व्यसनों की ओर संकेत किया गया है । गीतार्थ के विशिष्ट गुणों का स्वरूप बताते हुए आचार्य ने गीतार्थं को प्रायश्चित्त न लगने के कारणों की मीमांसा की है। गीतार्थ की केवली के साथ तुलना करते हुए श्रुतकेवली के वृद्धि-हानि के षट्स्थानों की ओर संकेत किया है । 3
द्वितीय प्रलम्बसूत्र के व्याख्यान
में निम्न विषयों का समावेश किया गया है: निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के लिए टूटे हुए ताल - प्रलम्ब के ग्रहण से सम्बन्ध रखनेवाले अपवाद, निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के देशान्तर -गमन के कारण और उसकी विधि, रोग और आतंक का भेद, रुग्णावस्था के लिए विधि-विधान, वैद्य और उनके आठ प्रकार ।
शेष प्रलम्बसूत्रों का विवेचन निम्न विषयों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है : पक्कतालप्रलम्बग्रहण विषयक निषेध, 'पक्क' पद के निक्षेप, 'भिन्न' और 'अभिन्न' पदों की व्याख्या, तद्विषयक षड्भंगी, तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त, अविधिभिन्न और विधिभिन्न तालप्रलम्ब, तत्सम्बन्धी गुण, दोष और प्रायश्चित्त, दुष्काल आदि में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के एक दूसरे के अवगृहीत क्षेत्र में रहने की विधि, तत्सम्बन्धी १४४ भंग और तद्विषयक प्रायश्चित्त ।"
मासकल्पप्रकृतसूत्र :
मासकल्पविषयक विवेचन प्रारम्भ करते समय सर्वप्रथम आचार्य ने प्रलम्बप्रकृत और मासकल्पप्रकृत के सम्बन्ध का स्पष्टीकरण किया है । प्रथम सूत्र की विस्तृत व्याख्या के लिए ग्राम, नगर, खेड, कबंटक, मडम्ब, पत्तन, आकर, द्रोगमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, संबाध, घोष, अंशिका, पुटभेदन, शंकर आदि पदों का विवेचन किया है। ग्राम का नामग्राम, स्थापनाग्राम, द्रव्यग्राम, भूतग्राम, आतोद्यग्राम, इन्द्रियग्राम, पितृग्राम, मातृग्राम और भावग्राम - इन नौ प्रकार के निक्षेपों से विचार किया गया है । द्रव्यग्राम बारह प्रकार का होता है :
१. गा० ८६३-९२३.
२. गा० ९२४-९५०. ३. गा० ९५१-१०००.
४. गा० १००१-१०३३. ५. गा० १०३४-१०८५. ६. गा० १०८८-१०९३.
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