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बृहत्कल्प-लघुभाष्य
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बाहर से वैद्य को बुलाने एवं उसके खानपान को व्यवस्था करने की विधि, रोगी साधु और वैद्य की सेवा करने के कारण, रोगो तथा उसकी सेवा करने वाले को अपवाद-सेवन के लिए प्रायश्चित्त, ग्लान साधु के स्थानान्तर के कारण तथा एकदूसरे समुदाय के ग्लान साधु की सेवा के लिए परिवर्तन, ग्लान साधु की उपेक्षा करने वाले साधुओं को सेवा करने की शिक्षा नहीं देने वाले आचार्य के लिए प्रायश्चित्त, निर्दयता से रुग्ण साधु को उपाश्रय, गली आदि स्थानों में छोड़कर चले जाने वाले आचार्य को लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त, एक गच्छ रुग्ण साधु की सेवा कितने समय तक करे और बाद में उस साध को किसे सौंपे, किन विशेष कारणों से किस प्रकार के विवेक के साथ किस प्रकार के ग्लान साधु को छोड़ा जा सकता है तथा इससे होने वाला लाभ इत्यादि ।
१०. गच्छप्रतिबद्धयथालंदिकद्वार--इस द्वार में वाचना आदि के कारण गच्छ के साथ सम्बन्ध रखने वाले यथालंदिककल्पधारियों के वन्दनादि व्यवहार तथा मासकल्प को मर्यादा का वर्णन किया गया है ।
११. उपरिदोषद्वार-इसमें वर्षाऋतु से अतिरिक्त समय में एक क्षेत्र में एक मास से अधिक रहने से लगने वाले दोषों का वर्णन किया गया है ।
१२. अपवादद्वार-यह अन्तिम द्वार है । इसमें एक क्षेत्र में एक मास से अधिक रहने के आपवादिक कारण तथा उस क्षेत्र में रहने एवं भिक्षाचर्या करने की विधि पर प्रकाश डाला गया है ।
मासकल्पविषयक द्वितीय सूत्र का व्याख्यान करते हुए आचार्य ने इस बात का प्रतिपादन किया है कि यदि ग्राम, नगर आदि दुर्ग के अन्दर और बाहर इन दो विभागों में बसे हुए हों तो अन्दर और बाहर मिलाकर एक क्षेत्र में दो मास तक रहा जा सकता है। इसके साथ ही ग्राम, नगरादि के बाहर दूसरा मासकल्प करते समय तृण, फलक आदि ले जाने की विधि की चर्चा की गई है तथा अविधि से ले जाने पर लगने वाले दोषों और प्रायश्चित्तों का वर्णन किया गया है। निर्गन्थियाँ-साध्वियाँ :
मासकल्पविषयक तृतीय सूत्र की व्याख्या करते हुए भाष्यकार ने निर्ग्रन्थीविषयक विशेष विधि-निषेध की चर्चा की है। इस चर्चा में निम्न विषयों का समावेश किया गया है : निर्ग्रन्थी के मासकल्प की मर्यादा, विहार का वर्णन, निर्ग्रन्थियों के समुदाय का गणधर और उसके गुण, गणधर द्वारा क्षेत्र की
१. गा० २०३४-२०४६.
२. गा० २०४७-२१०५.
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