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जीतकल्पभाष्य
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का दृष्टान्त देकर हस्तादान के स्वरूप की पुष्टि की है ।" इसके बाद अंतिम प्रायश्चित्त पारांचिक का वर्णन प्रारंभ होता है ।
पारांचिक :
पारांचिक - प्रायश्चित्त का स्वरूप बताते समय आचार्य ने तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य आदि की आशातना से सम्बन्ध रखने वाले पारांचिक का निर्देश किया है । साथ ही कषायदुष्ट, विषयदुष्ट, स्त्यानद्धिप्रमत्त और अन्योन्य-कुर्वाणपारांचिक का स्वरूप बताते हुए लिंग, क्षेत्र और काल की दृष्टि से पारांचिक का विवेचन किया है । इसके बाद इस तथ्य की ओर हमारा ध्यान खींचा है कि अनवस्थाप्य और पारांचिक - प्रायश्चित्त का सद्भाव चतुर्दशपूर्बंधर भद्रबाहु तक ही रहा है । 3 जीतकल्प का उपसंहार करते हुए जीतकल्प सूत्र के अध्ययन का अधिकारी कौन है, इसका उत्तर देते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जो सूत्र और अर्थ दोनों से प्राप्त अर्थात् युक्त है वही जीतकल्प का योग्य अधिकारी है, शेष को उसके अयोग्य समझना चाहिए ।" जीतकल्प के महत्त्व एवं आधार की ओर एक बार पुनः निर्देश करते हुए भाष्यकार ने भाष्य की समाप्ति की है । " आचार के नियमों और विशेषकर चारित्र के दोषों की शुद्धि का प्रायश्चित्त द्वारा विधान करने वाले जीतकल्प सूत्र के स्वोपज्ञ भाष्य के इस संक्षिप्त परिचय से उसकी शैली एवं सामग्री का अनुमान लगाना कठिन नहीं है । जीतकल्पभाष्य आचार्य जिनभद्र -की जैन आचारशास्त्र पर एक महत्त्वपूर्ण कृति है, इसमें कोई संदेह नहीं ।
१. गा० २३०१-२४१०. २. गा० २४६३ - २५८५. ४. गा० २५९४.
५. गा० २६०० - ६.
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३. गा० २५८६-७.
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