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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास १०. परीक्षा, ११. आलोचना, १२. स्थान-वसति, १३. निर्यापक, १४. द्रव्यदापना, १५. हानि. १६. अपरितान्त, १७. निर्जरा, १८. संस्तारक, १९. उद्वर्तना, २०. स्मारणा, २१. कवच, २२. चिह्नकरण, २३. यतना। इसी प्रकार निर्याघात और सव्याघातरूपी अपराक्रमभक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण और पादपोपगमन के स्वरूप का विवेचन किया गया है ।' यहाँ तक आगमव्यवहार का अधिकार है। श्रुतादिव्यवहार :
पूर्वनिर्दिष्ट आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीतव्यवहार में से आगम व्यवहार का व्याख्यान समाप्त करके आचार्य ने श्रुतव्यवहार का संक्षिप्त विवेचन किया है । आज्ञाव्यवहार का व्याख्यान करते हुए अपरिणत, अतिपरिणत और परिणत शिष्यों को परीक्षा के स्वरूप की ओर निर्देश किया है। इसके बाद दर्प के दस तथा कल्पना के चौबीस भेदों का सभंग विवेचन किया है। इसी प्रकार धारणाव्यवहार का भी विचार किया गया है । जीतव्यवहार :
जो व्यवहार परंपरा से प्राप्त हो, श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा अनुमत हो, जिसका बहुश्रुतों ने अनेक बार सेवन किया हो तथा जिसका उनके द्वारा निवारण न किया गया हो वह जीतव्यवहार कहलाता है । जिसका आधार आगम, श्रुत, आज्ञा अथवा धारणा न हो वह जीतव्यवहार है। उसका मूल आधार आगमादि न होकर केवल परंपरा ही होती है। जिस जीतव्यवहार से चारित्र की शुद्धि होती हो उसी का आचरण करना चाहिए। जो जीतव्यवहार चारित्र-शुद्धि का कारण न हो उसका आचरण नहीं करना चाहिए। संभव है कि ऐसा भी कोई जीतव्यवहार हो जिसका आचरण किसी एक ही व्यक्ति ने किया हो फिर भी यदि वह व्यक्ति संवेगपरायण हो, दान्त हो तथा वह आचार शुद्धिकर हो तो उस जोतव्यवहार का अनुकरण करना चाहिए। इसके बाद भाष्यकार ने व्यवहार के स्वरूप का उपसंहार किया है। यहाँ तक मूल सूत्र की प्रथम गाथा का व्याख्यान है। प्रायश्चित्त के भेद :
प्रायश्चित्त का माहात्म्य-वर्णन करने के बाद आचार्य ने उसके दस भेदों की गणना व उनका संक्षिप्त स्वरूप-वर्णन किया है। प्रायश्चित्त के दस भेद ये हैं : १. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. मिश्र, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ९. अनवस्थाप्य, १०. पारांचिक ।' १. गा० ३२२-५५९. २. गा० ५६०-६७४. ३. गा० ६७५-६९४. ४. गा० ६९५-७०५. ५. गा० ७०६-७३०.
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