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जीतकल्पभाष्य
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आलोचना :
प्रथम प्रायश्चित्त आलोचना के अपराध-स्थानों की ओर संक्षेप में संकेत करते हए इसी प्रसंग से 'छद्म' का अर्थ बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि छद्म कर्म को कहते हैं । वह कर्म चार प्रकार का है : ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय । जब तक प्राणी इन चार प्रकार के कर्मों के बन्धन से मुक्त नहीं होता तब तक वह छद्मस्थ कहलाता है । आलोचना आदि प्रायश्चित्तों का विधान छद्मस्थों के लिए ही है। प्रतिक्रमण :
प्रतिक्रमण के अपराध-स्थानों का वर्णन करते हुए गुप्ति और समिति का भी सोदाहरण वर्णन किया गया है। मनोगुप्ति के लिए जिनदास का उदाहरण दिया गया है । इसी प्रकार वचनगुप्ति और कायगुप्ति के लिए भी दो अन्य उदाहरण दिए गए हैं। समितियों का स्वरूप समझाते हुए ईर्यासमिति के लिए अर्हन्नक का उदाहरण दिया गया है। भाषासमिति का स्वरूप समझाने के लिए एक साधु का दृष्टान्त उपस्थित किया गया है। वसुदेव के जोव नंदिवर्धन का उदाहरण देकर एषणासमिति का स्वरूप बताया गया है। इसी प्रकार आदाननिक्षेपणासमिति के लिए भी एक उदाहरण दिया गया है। परिष्ठापनिकासमिति का स्वरूप समझाने के लिए धर्मरु चि का दृष्टान्त प्रस्तुत किया गया है । इस प्रसंग पर भाष्यकार ने निम्न विषयों की चर्चा भी की है : गुरु की आशातना और उसका स्वरूप, गुरु और शिष्य का भाषा-प्रयोग, गुरु-विनय का भंग और उसका स्वरूप, विनय-भंग के सात प्रकार, इच्छादि, दस प्रकार की अकरणता, लघुमृषावाद व उसका स्वरूप ।
प्रतिक्रमण से सम्बन्धित अविधि, कास, जृम्भा, क्षुत, वात, असंक्लिष्टकर्म, कन्दर्प, हास्य, विकथा, कषाय, विषयानुषंग, स्खलना, सहसा, अनाभोग, आभोग, स्नेह, भय, शोक और बाकुशिक अपराध-स्थानों का मूल सूत्र का अनुसरण करते हुए व्याख्यान किया गया है।४ मिश्र प्रायश्चित्त :
इस प्रायश्चित्त में आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों का समावेश है । इसमें आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों के संयुक्त अपराध-स्थानों का विवेचन किया
३. गा० ८६१-९०५.
१. गा० ७३५. २. गा० ७८४-८६०. ४. गा० ९०६-९३२.
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