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जैन साहित्य का बृहद इतिहास किया है । नोइन्द्रियप्रत्यक्ष आगम तोन प्रकार का है : अवधि, मनःपर्यय और केवल । अवधिज्ञान या तो भवप्रत्ययिक होता है या गुणप्रत्ययिक । अवधि के छः भेद हैं : अनुगामिक, अनानुगामिक, वर्धमानक, हीयमानक, प्रतिपाती और अप्रतिपाती । द्रव्यावधि; क्षेत्रावधि, कालावधि और भावावधि की दृष्टि से अवधिज्ञान का विचार किया जाता है । मनःपर्यय के दो भेद हैं : ऋजुमति और विपुलमति । इसका भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावपूर्वक विचार किया जाता है। केवलज्ञान सर्वावरण का क्षय होने पर उत्पन्न होता है। भूत, वर्तमान और भविष्य का कोई ऐसा क्षण नहीं है जिसका केवली को प्रत्यक्ष न हो । क्षयोपशमजन्य मति आदि ज्ञानों का केवलो में अभाव है क्योंकि उसका ज्ञान सर्वथा क्षयजन्य है।'
श्रुतधर आगमतः परोक्ष व्यवहारी हैं। चतुर्दशपूर्वधर, दशपूर्वधर, नवपूर्वधर, • गन्धहस्ती आदि इसी कोटि के हैं। प्रायश्चित्त के स्थान :
इसके बाद भाष्यकार अपने मूल विषय प्रायश्चित्त का विवेचन प्रारम्भ करते हैं । प्रायश्चित्त को न्यूनता-अधिकता सम्बन्धी प्रश्नोत्तर के बाद प्रायश्चित्तदान के योग्य व्यक्ति का स्वरूप बताते हुए आलोचना के श्रवण का क्रम बताते हैं। प्रायश्चित्त के अठारह, बत्तीस तथा छत्तीस स्थानों का विचार किया है । बत्तीस स्थानों के लिए आठ गणिसम्पदाओं का विवेचन किया है । आठ संपदाओं के प्रत्येक के चार-चार भेद किए गए हैं : १. चार प्रकार को आचारसम्पदा, २. चार प्रकार को श्रुतसम्पदा, ३. चार प्रकार को शरीरसम्पदा, ४. चार प्रकार वचनसम्बदा, ५. चार प्रकार की वाचनासम्पदा, ६. चार प्रकार की मतिसम्पदा, ७. चार प्रकार की प्रयोगमतिसम्पदा, ८. चार प्रकार की संग्रहपरिज्ञासम्पदा । इनमें चार प्रकार की विनयप्रतिपत्ति और मिला देने से प्रायश्चित्त के छत्तीस स्थान बन जाते हैं। विनयप्रतिपत्ति के चार भेद इस प्रकार हैं : आचारविनय, श्रुतविनय, विक्षेपण विनय और दोषनिर्घातविनय । इनमें से प्रत्येक के पुनः चार भेद हैं। प्रायश्चित्तदाता :
प्रायश्चित्त देनेवाले योग्य ज्ञानियों का अभाव होने पर प्रायश्चित्त कैसे सम्भव हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि प्रायश्चित्त
१. गा० ७-१०९. ३. गा० ११७-१४८.
२. गा० ११०-६. ४. गा० १४९-२४१.
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