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जीतकल्पभाष्य
तिसमयहारादीणं, गाहाणऽट्ठाह वी सरूवं तु ।
वित्थरयो वण्णेज्जा, जह हेट्ठाऽवस्सए भणियं ॥६०॥ इस गाथा के 'जह हेट्ठाऽऽवस्सए भणियं' इस पाठ की ओर ध्यान देने से सहज ही प्रतीत होता है कि यहाँ 'जह आवस्सए भणियं' इतना सा पाठ ही काफी होते हुए भाष्यकार ने 'हेट्ठा' शब्द और क्यों बढ़ाया ? हेट्ठा' शब्द कोई पादपूर्तिरूप शब्द नहीं कि वैसा मानने से काम चल जाए। वास्तव में ग्रंथकार 'हेट्ठा' और 'उरि' इन दो शब्दों को अनुक्रम से 'पूर्व' और 'अग्रे' अर्थ में ही काम में लाते हैं; उदाहरणार्थ 'हेट्ठा भणियं' अर्थात 'पूर्वं भणितम्' तथा 'उरि वोच्छं' अर्थात् 'अग्रे वक्ष्ये' । इससे यह फलित होता है कि प्रस्तुत भाष्यकार ने 'तिसमयहार अर्थात् 'जावइया तिसमया' (आवश्यकनियुक्ति, गा० ३०) इत्यादि आठ गाथाओं का विवरण पहले आवश्यक में अर्थात् आवश्यकभाष्य में विस्तार से दे दिया है । आवश्यकनियुक्ति के अन्तर्गत 'जावइया तिसमया' आदि गाथाओं का भाष्य लिखकर विस्तृत व्याख्यान करने वाला आचार्य जिनभद्र के सिवाय अन्य कोई नहीं है । इसलिए जीतकल्पभाष्य के प्रणेता आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ही होने चाहिए।' प्रायश्चित्त का अर्थ:
सर्वप्रथम आचार्य ने 'प्रवचन' शब्द का निरुक्तार्थ करते हुए प्रवचन को नमस्कार किया है । इसके बाद दस प्रकार के प्रायश्चित्त की व्याख्या करने का संकल्प करते हुए 'प्रायश्चित्त' शब्द का निरुक्तार्थ किया है। प्रायश्चित्त' के प्राकृत में दो रूप प्रचलित हैं : 'पायच्छित्त' और 'पच्छित्त' । इन दोनों शब्दों की व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जो पाप का छेद करता है वह 'पायच्छित्त' है एवं प्रायः जिससे चित्त शुद्ध होता है वह 'पच्छित्त' है। आगमव्यवहार:
सूत्र की प्रथम गाथा में प्रयुक्त 'जीतव्यवहार' का व्याख्यान करने के लिए भाष्यकार ने आगमादि व्यवहारपञ्चक-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीतव्यवहार का विवेचन किया है । आगमव्यवहार के दो भेद हैं : प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष के पुनः दो भेद हैं : इन्द्रियज और नोइन्द्रियज । इन्द्रियप्रत्यक्ष को पाँच विषयों के रूप में समझना चाहिए। 'अक्ष' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए आचार्य ने 'अक्ष' के अर्थ के सम्बन्ध में अन्य मत का निर्देश एवं प्रतिषेध
१. वही, पृ० ५-६.
२. गा० १-५
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