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विशेषावश्यकभाष्य
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समर्थन किया है और इसी दृष्टि से जिनादिपूजा का विवेचन किया है। यहाँ तक नमस्कारनियुक्ति का अधिकार है।' पदव्याख्या
करेमि भंते !' इत्यादि सामायिकसूत्र के पदों की व्याख्या करते हुए भाष्यकार ने 'करेमि' पद के लिए 'करण' शब्द का विस्तारपूर्वक व्याख्यान किया है । 'करण' का अर्थ है क्रिया; अथवा यथासम्भव अन्य अर्थ का भी ग्रहण कर लेना चाहिए । 'करण नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव भेद से छः प्रकार
'भंते' अर्थात् 'भदन्त' की व्याख्या करते हुए आचार्य कहते हैं कि 'भदन्त' शब्द कल्याण और सुखार्थक है तथा निर्वाण का कारण है । सुख और कल्याण का साधन गुरु है । इसी प्रकार इस शब्द की और भी अनेक प्रकार की व्याख्याएँ की गई हैं।
आगे की गाथाओं में सामायिक, सर्व, सावद्य, योग, प्रत्याख्यान, यावज्जीव, विविध, करण, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्हा, व्युत्सर्जन आदि पदों का सविस्तार व्याख्यान किया गया है । प्रसंगवशात् संग्रहादि छः नयों की विशेष व्याख्या भी की गई है ।" अन्तिम गाथा में भाष्यकार आचार्य जिनभद्र इस भाष्य को सुनने से जिस फल की प्राप्ति होती है उसकी ओर निर्देश करते हुए कहते हैं कि सर्वानुयोगमूलरूप इस सामायिक के भाष्य को सुनने से परिमित मतियुक्त शिष्य शेष शास्त्रानुयोग के योग्य हो जाता है ।
विशेषावश्यकभाष्य के इस विस्तृत परिचय से स्पष्ट है कि आचार्य जिनभद्र ने इस एक ग्रंथ में जैन विचारधाराओं का कितनी विलक्षणता से संग्रह किया है । आचार्य की तर्कशक्ति, अभिव्यक्तिकुशलता, प्रतिपादनप्रवणता एवं व्याख्यानविदग्धता का परिचय प्राप्त करने के लिए यह एक ग्रंथ ही पर्याप्त है । वास्तव में विशेषावश्यकभाष्य जैनज्ञानमहोदधि है। जैन आचार और विचार के मूलभूत समस्त तत्त्व इस ग्रंथ में संग्रहीत हैं। दर्शन के गहनतम विषय से लेकर चारित्र की सूक्ष्मतम प्रक्रिया तक के सम्बन्ध में इसमें पर्याप्त प्रकाश डाला गया है ।
१. गा० ३२९४. ४. गा०३४७७-३५८३.
२. गा० ३२९९-३४३८. ३. गा० ३४३९-३४७६
५. गा० ३५८४-३६०१. ६. गा०३६०३.
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