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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास नमस्कारयोग्य है अतः वस्तुद्वार के अन्तर्गत हैं । इस द्वार की चर्चा के प्रसंग से नियुक्तिकार ने अरिहंत आदि पाँच परमेष्ठियों का बहुत विस्तारपूर्वक गुणगान किया है और यह बताया है कि अरिहंत आदि को नमस्कार करने से जीव सहस्र भवों से छुटकारा पाता है तथा उसे भावपूर्वक क्रिया करते हुए बोघ- सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । अरिहंत आदि के नमस्कार से सब पापों का नाश होता है । यह नमस्कार सब मंगलों में प्रथम मंगल है । 'अरिहंत' (अर्हत्) शब्द की निरुक्ति करते हुए आचार्य कहते हैं कि इंद्रिय, विषय, कषाय, परीषह, वेदना, उपसगं आदि जितने भी आंतरिक अरि अर्थात् शत्रु हैं उनका हनन करनेवाले अरिहंत कहलाते हैं अथवा अष्ट प्रकार के कर्मरूपी अरियों का नाश करनेवालों को अरिहंत कहते हैं अथवा जो वन्दना, नमस्कार, पूजा, सत्कार और सिद्धि के अर्ह अर्थात् योग्य हैं उन्हें अर्हन्त कहते हैं अथवा जो देव, असुर और मनुष्यों से अर्ह अर्थात् पूज्य हैं वे अर्हन्त हैं ।' 'सिद्ध' शब्द को निक्षेपपद्धति से व्याख्या करते हुए आचार्य कहते हैं कि जो कर्म, शिल्प, विद्या, मन्त्र, योग, आगम, अर्थ, यात्रा, अभिप्राय, तप और कर्मक्षय-इनमें सिद्ध अर्थात् सुपरिनिष्ठित एवं पूर्ण है वह सिद्ध है । अभिप्राय अर्थात् बुद्धि को व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार ने चार प्रकार की बुद्धि का वर्णन किया है : १. औत्पातिकी, २. वैनयिकी, ३. कर्मजा, ४. पारिणामिकी । इन चारों प्रकार की बुद्धियों का सदृष्टान्त विवेचन किया गया है। कर्मक्षय की प्रक्रिया का व्याख्यान करते समय समुद्धात का स्वरूप बताया गया है। इसके बाद अलावू, एरण्डफल, अग्निशिखा और बाण के दृष्टान्त द्वारा सिद्ध आत्माओं की गति का स्वरूप समझाया गया है। फिर सिद्धस्थान, सिद्धशिलाप्रमाण, सिद्धशिलास्वरूप, सिद्धावगाहना, सिद्धस्पर्शना, सिद्ध लक्षण, सिद्धसुख आदि सिद्धसम्बन्धी अन्य बातों पर प्रकाश डालते हुए यही निष्कर्ष निकाला गया है कि सिद्ध अशरीरी होते हैं, हमेशा दर्शन और ज्ञान में उपयुक्त होते हैं, केवलज्ञान में उपयुक्त होकर सर्वद्रव्य और समस्त पर्यायों को विशेषरूप से जानते हैं, केवलदर्शन में उपयुक्त होकर सर्वद्रव्य और समस्त पर्यायों
को सामान्यरूप से देखते हैं. उन्हें ज्ञान और दर्शन इन दोनों में से एक समय में “एक ही उपयोग होता है क्योंकि युगपत् दो उपयोग नहीं हो सकते ।६ 'आचार्य' शब्द की निरुक्ति करते हुए कहा गया है कि आचार्य के चार प्रकार हैं : नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य-इन पाँच प्रकार के आचारों का स्वयं आचरण करता है, दूसरों के सामने उनका प्रभाषण और प्ररूपण करता है तथा दूसरों को अपनी क्रिया द्वारा आचार का ज्ञान कराता
१. गा० ९१३-६. २. गा० ९२१. ३. गा० ९३२. ४. गा० ९४८-९५०. ५. गा० ९५१. ६. गा० ९५२-९८२.
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