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तृतीय प्रकरण
दशवैकालिकनियुक्ति सर्वप्रथम नियुक्तिकार ने सर्वसिद्धों को मंगलरूप नमस्कार करके दशवैकालिकनियुक्ति रचने की प्रतिज्ञा की है। मंगल के विषय में वे कहते हैं कि ग्रन्थ के आदि, मध्य और अन्त में विधिपूर्वक मंगल करना चाहिए। मंगल नामादि भेद से चार प्रकार का होता है । भावमंगल का अर्थ श्रुतज्ञान है । वह चार प्रकार का है : चरणकरगानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग (कालानुयोग) और द्रव्यानुयोग । चरणकरणानुयोग के द्वार ये हैं : निक्षेप, एकार्थ, निरुक्त, विधि, प्रवृत्ति, किसके द्वारा, किसका, द्वारभेद, लक्षण, पर्षद् और सूत्रार्थ ।
दशवकालिक शब्द का व्याख्यान करने के लिए 'दश' और 'काल' का निक्षेप पद्धति से विचार करना चाहिए। 'दश' के पूर्व 'एक' का निक्षेप करते हुए
आचार्य कहते हैं कि एकक के नाम, स्थापना, द्रव्य, मातृकापद, संग्रह, पर्याय और 'भाव-ये सात प्रकार है। दशक का निक्षेप छ : प्रकार का है : नाम, स्थापना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । काल के दस भेद इस प्रकार है : बाला, क्रीडा, मंदा, बला, प्रज्ञा, हायिनि, प्रपंचा, प्रारभारा, मुन्मुखी और शायिनी । ये प्राणियों की दस दशाएँ-अवस्थाविशेष हैं।
काल का द्रव्य, अर्द्ध', यथायुष्क, उपक्रम, देश, काल, प्रमाण, वर्ण और भाव-इन नौ दृष्टियों से विचार करना चाहिए।
दशकालिक अथवा दशवैकालिक 'दश' और 'काल' इन दो पदों से सम्बन्ध रखता है । दशकालिक में 'दश' का प्रयोग इसलिए किया गया है कि इस सूत्र में १. (अ) हरिभद्रीय विवरणसहित : प्रकाशक -देवचन्द लालाभाई जैन पुस्तकोद्धार,
बम्बई, १९१८. (आ) नियुक्ति व मल: सम्पादक E. Leumann, ZDMG भा. ४६.
पृ. ५८१-६६३. २. गा. १-५. ३. गा. ८-१०. ४. गा. ११.
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