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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
गाथाएं हैं | पंचकल्प - महाभाष्य की गाथासंख्या २५७४ | व्यवहारभाष्य में ४६२९ गाथाएं हैं । निशीथभाष्य में लगभग ६५०० गाथाएं हैं। जीतकल्पभाष्य की गाथासंख्या २६०६ है । ओघनियुक्ति पर दो भाष्य हैं जिनमें से एक की गाथासंख्या ३२२ तथा दूसरे की २५१७ है । पिण्डनियुक्ति-भाष्य में ४६ गाथाएं हैं ।
भाष्यकार :
उपलब्ध भाष्यों की प्रतियों के आधार पर केवल दो भाष्यकारों के नाम का पता लगता है । वे हैं आचार्य जिनभद्र और संघदासगणि । आचार्य जिनभद्र ने दो भाष्य लिखे : विशेषावश्यकभाष्य और जीतकल्पभाष्य । संघदासगणि के भी दो भाष्य हैं : बृहत्कल्प- लघुभाष्य और पंचकल्प - महाभाष्य ।
आचार्य जिनभद्र :
आचार्य जिनभद्र का अपने महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के कारण जैन परंपरा के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान है । इतना होते हुए भी आश्चर्य इस बात का है कि उनके जीवन की घटनाओं के विषय में जैन ग्रंथों में कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है । उनके जन्म और शिष्यत्व के विषय में परस्पर विरोधी उल्लेख मिलते हैं । ये उल्लेख बहुत प्राचीन नहीं हैं अपितु १५वीं या १६वीं शताब्दी की पट्टावलियों में हैं । इससे यह सिद्ध होता है कि आचार्य जिनभद्र को पट्टपरंपरा में सम्यक् स्थान नहीं मिला। उनके महत्त्वपूर्ण ग्रंथों तथा उनके आधार पर लिखे गये विवरणों को देखकर ही बाद के आचार्यों ने उन्हें उचित महत्त्व दिया तथा आचार्य परंपरा में सम्मिलित करने का प्रयास किया। चूंकि इस प्रयास में वास्तविकता की मात्रा अधिक न थी अतः यह स्वाभाविक है कि विभिन्न आचार्यों के उल्लेखों में मतभेद हो । यही कारण है कि उनके संबंध में यह भी उल्लेख मिलता है कि वे आचार्य हरिभद्र के पट्ट पर बैठे ।
संवत् ५३१ में
आचार्य जिनभद्रकृत विशेषावश्यकभाष्य की प्रति शक लिखी गई तथा वलभी के एक जैन मंदिर में समर्पित की गई। इस घटना से यह प्रतीत होता है कि आचार्य जिनभद्र का वलभी से कोई संबंध अवश्य होना चाहिए । आचार्य जिनप्रभ लिखते हैं कि आचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण ने मथुरा में देवनिर्मित स्तूप के देव की आराधना एक पक्ष की तपस्या द्वारा की और दीमक द्वारा खाए हुए महानिशीथसूत्र का उद्धार किया । इससे
१. गणधरवाद : प्रस्तावना, पृ० २७-४५.
२. विविधतीर्थंकल्प पृ० १९.
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