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विशेषावश्यकभाष्य
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कहलाता है । इस मत की उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है : महागिरि का प्रशिष्य तथा कौण्डिन्य का शिष्य अश्वमित्र अनुप्रवाद नामक पूर्व का अध्ययन करता था। उसमें ऐसा वर्णन आया कि वर्तमान समय के नारक विच्छिन्न हो जाएँगे। इसी प्रकार द्वितीयादि समय के नारक भी विच्छिन्न हो जाएँगे । वैमानिक आदि के विषय में भी यही बात समझनी चाहिए । यह जानकर उसके मन में शंका हुई कि यदि इस प्रकार उत्पन्न होते ही जोव नष्ट हो जाता हो तो वह कर्म का फल कब भोगता है ? उसकी इस शंका का समाधान करते हुए गुरु ने कहा कि पर्यायरूप से नारकादि नष्ट होते हैं किन्तु द्रव्यरूप से तो वे विद्यमान ही रहते हैं अतः कर्मफल का वेदन घट सकता है। गुरु के समझाने पर भी वह अपने हठ पर दृढ़ रहा और एकान्त समुच्छेद का प्रचार करने लगा। परिणामतः वह संघ से बहिष्कृत कर दिया गया। एक समय अश्वमित्र विचरते-विचरते राजगृह में जा पहुंचा। वहाँ के श्रावकों ने उसे पीटना शुरू किया । यह देखकर वह कहने लगा-"तुम लोग श्रावक होकर साधु को पीटते हो !" श्रावकों ने उत्तर दिया-"जो साधु बना था वह अश्वमित्र और जो श्रावक बने थे वे लोग तो कभी के नष्ट हो चुके । तुम
और हम तो कोई और ही हैं।" यह सुनकर अश्वमित्र को अपने मत की दुर्बलता महसूस हुई। उसने पुनः अपने गुरु के पास जाकर क्षमायाचना की तथा महावीर के संघ का अनुयायी बना ।' पंचम निह्नव :
___पंचम निह्नव का नाम गंग है । उसने इस मत का प्रतिपादन किया कि एक समय मे दो क्रियाओं का अनुभव हो सकता है। इसो मान्यता के कारण उसे द्वैक्रिय निह्नव कहा जाता है । घटना इस प्रकार है : आर्य महागिरि का प्रशिष्य तथा धनगुप्त का शिष्य गंग एक समय शरद् ऋतु में अपने आचार्य को वंदना करने के लिए उल्लुकातीर नामक नगर से निकल कर चला। रास्ते में उल्लुका नदी में चलते समय उसे सिर पर लगती हुई सूर्य की गरमी तथा पैरों में लगती हुई नदी को ठंडक का अनुभव हुआ । यह देखकर उसने सोचा'सूत्रों में तो कहा गया है कि एक समय में एक ही क्रिया का वेदन हो सकता है किन्तु मुझे तो एक ही साथ दो क्रियाओं का अनुभव हो रहा है ।' उसने अपना अनुभव अपने गुरु के सामने रखा। गुरु ने कहा-"तुम्हारा कहना ठाक है किन्तु बात यह है कि समय और मन इतने सूक्ष्म हैं कि हम लोग सामान्यतया उनके छोटे-छोटे भेदों को नहीं समझ सकते । वास्तव में किसी भी क्रिया का वेदन क्रमशः ही होता है।" गंग को गुरु की बात अँची नहीं। वह संघ से अलग
१. गा० २३८९-२४२३.
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