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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास होकर अपने मत का प्रचार करने लगा। एक समय राजगृह में अपने मत का प्रचार करते हुए मणिनाग द्वारा भयभीत होकर उसने पुनः अपने गुरु के पास आकर प्रायश्चित्त किया।' षष्ठ निह्नव :
छठे निह्नव का नाम रोहगुप्त अथवा षडुलूक है । उसने राशिक मत का प्ररूपण किया। इस मत का अर्थ है जीव, अजीव और नोजीव-इस प्रकार की तीन राशियों का सद्भाव । कथानक इस प्रकार है : एक समय रोहगुप्त किसी अन्य ग्राम से अंतरंजिका नगरी के भूतगृह नामक चैत्य में ठहरे हुए अपन गुरु श्रीगुप्त को वंदना करने जा रहा था। मार्ग में उसने अनेक प्रवादियों को पराजित किया और सारा हाल अपने गुरु के सामने रखा। इसके बाद उसने मोरी, नकुली बिडाली, व्याघ्री, सिंही, उलूकी और उलावकी विद्याओं को ग्रहण किया तथा पोट्टशाल नामक परिव्राजक को जो कि वृश्चिकी, सी, मषकी, मृगी, वराही, काकी तथा पोताकी विद्याओं में सिद्धहस्त था, वाद के लिए चुनौती दी। राजसभा में पोट्टशाल ने जीव और अजीव-इन दो राशियों की स्थापना की। उसे परास्त करने के लिए रोहगुप्त ने एक तीसरी राशि नोजीव की भी स्थापना की । इसी प्रकार अन्य विद्याओं में भी उसे अपनी मोरी आदि विरोधी विद्याओं से पराजित किया। जब उसने अपने अपने गुरु के सामने यह सारा वृत्तान्त रखा तो गुरु ने कहा-"तू वापिस जा और राजसभा में जाकर कह कि राशित्रय का सिद्धान्त कोई वास्तविक सिद्धान्त नहीं है। मैंने केवल वादी को पराजित करने के लिए ही इस सिद्धान्त की अपने बुद्धिबल से स्थापना की है । यथार्थ में राशित्रय का सिद्धान्त अपसिद्धान्त है ।" रोहगुप्त ने गुरु की इस आज्ञा को न माना तथा अपने अभिनिवेश के कारण वह राशित्रय के सिद्धान्त पर ही डटा रहा । यह देखकर गुरु स्वयं उसे अपने साथ राजसभा में ले गये। वहाँ से राजा के साथ वे कुत्रिकापण (सब चीजों की दुकान) पर गये । वहाँ जाकर उन्होंने जीव मांगा तो जीव मिला, अजीव मांगा तो अजीव भी मिला । जब उन्होंने नोजीव मांगा तो कुछ नहीं मिला । यह देखकर सभा में रोहगुप्त की पराजय की घोषणा कर दी गयी। इतना होने पर भी उसका अभिनिवेश कम न हुआ और उसने वैशेषिक मत का प्ररूपण किया। रोहगुप्त का नाम षडुलूक कैसे हो गया, इसका समाधान करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि उसका नाम तो रोहगुप्त है किन्तु गोत्र से वह उलूक है । द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक षट पदार्थों का प्ररूपण करने के कारण उलूकगोत्रीय रोहगुप्त को षडुलूक कहा गया है। १. गा० २४२४-२४५०. २. गा० २४५१-२५०८.
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