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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भान हुआ। उसने अपने अभिनिवेश का प्रायश्चित्त किया और गुरु से क्षमायाचना की। तृतीय निह्नव :
तीसरे निह्नव को मान्यता का नाम अव्यक्तमत है। श्वेतविका नगरी के पौलाषाढ चैत्य में आषाढ नामक आचार्य ठहरे हुए थे। उनके अनेक शिष्य योग की साधना में संलग्न थे । आषाढ अकस्मात् रात्रि में मरकर देव हुए। उन्हें अपने योगसंलग्न शिष्यों पर दया आई और वे पुनः अपने मृत शरीर में रहने लगे तथा अपने शिष्यों को पूर्ववत् ही आचार आदि की शिक्षा देते रहे। जब योग-साधना समाप्त हुई तब उन्होंने अपने शिष्यों को वन्दना कर कहा-“हे श्रमणो ! मुझे क्षमा करना कि मैंने असंयती होते हुए भी आप लोगों से आज तक वन्दना करवाई।" इतना कहकर वे अपना शरीर छोड़ कर देवलोक में चले गए। यह जानकर उनके शिष्यों को भारी पश्चात्ताप होने लगा कि हमने असंयती-देव को इतनी बार वंदना की। उन्हें धीरे-धीरे ऐसा मालूम होने लगा कि किसी के विषय में यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वह साधु है या देव। इसलिए किसी को वन्दना करनी ही नहीं चाहिए । वन्दना करने पर वह व्यक्ति साधु के बदले देव निकल जाता है तो असंयत-नमन का दोष लगता है; यदि यह कहा जाए कि वह साधु नहीं है और कदाचित् साधु ही हो तो मृषावाद का पाप लगता है। चूंकि किसी की साधुता का निश्चय हो ही नहीं सकता इसलिए किसी को भी वंदना नहीं करनी चाहिए । अन्य स्थविरों ने उन्हें बहुत समझाया कि ऐसा ऐकान्तिक आग्रह करना ठीक नहीं किन्तु उन्होंने किसी की न मानी और संघ से अलग होकर अव्यक्तमत का प्रचार करने लगे। एकबार राजगृह के बलभद्र राजा ने ऐसा आदेश निकाला कि इन सब साधुओं को मार डालो। यह जानकर वे लोग बड़े व्याकुल हुए और राजा से कहने लगे-"हम लोग साधु हैं और तू हमें कैसे मरवा सकता है ? राजा ने कहा-"आपका कहना तो ठीक है किन्तु मैं कैसे जान सकता हूँ कि तुम लोग चोर हो या साधु ?" यह सुनकर उन लोगों का भ्रम दूर हुआ और यथोचित प्रायश्चित्त करके वे पुनः संघ में सम्मिलित हुए। आषाढ़ के कारण से अव्यक्तमत का उद्भव हुआ अतः उसके नाम के साथ यह मत जोड़ दिया गया। चतुर्थ निह्नव : ___ यह निह्नव सामुच्छेदिक के नाम से प्रसिद्ध है। समुच्छेद का अर्थ है जन्म होते ही अत्यन्त नाश । इस प्रकार की मान्यता का समर्थक सामुच्छेदिक
१. गा० २३३३-२३५५.
२. गा० २३५६-२३८८.
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