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विशेषावश्यकभाष्य
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इस सिद्धान्त के अनुसार कोई भी क्रिया एक समय में न होकर बहुत समय में होती है । भाष्यकार ने अनेक हेतु देकर इस सिद्धान्त को स्पष्ट किया है। इसमें प्रियदर्शना ( सुदर्शना-अनवद्या-ज्येष्ठा ) का वृत्तान्त भी दिया गया है जिसने पहले तो पति के अनुराग के कारण जमालि के संघ में जाना स्वीकार कर लिया था किन्तु बाद में भगवान महावीर के सिद्धान्त का वास्तविक अर्थ समझने पर पुनः महावीर के संघ में सम्मिलित हो गई। द्वितीय निह्नव :
द्वितीय निह्नव तिष्यगुप्त ने जोवप्रादेशिक मत का प्ररूपण किया था। तिष्यगुप्त वसु नामक चौदहपूर्वधर आचार्य का शिष्य था। वह जिस समय राजगृह-ऋषभपुर में था उस समय आत्मप्रवाद नामक पूर्व के आधार पर उसने एक नया तर्क उपस्थित किया और जीवप्रादेशिक मत की स्थापना की। कथानक इस प्रकार है : गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा--'भगवन् ! क्या जीव के एक प्रदेश को जीव कह सकते हैं ?" महावीर ने कहा--"नहीं ऐसा नहीं हो सकता । इसी प्रकार दो, तीन, संख्यात अथवा असंख्यात प्रदेशों को तो क्या, जीव के जो असंख्यात प्रदेश हैं उनमें से एक प्रदेश भी कम हो तो उसे जीव नहीं कह सकते । लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर सम्पूर्ण प्रदेशयुक्त होने पर ही वह जीव कहा जाता है ।" इस संवाद को सुनकर तिष्यगुप्त ने अपने गुरु वसु से कहा--'यदि ऐसा ही है तो जिस प्रदेश के बिना वह जीव नहीं कहलाता और जिस एक प्रदेश से वह जीव कहलाता है उस चरम प्रदेश को ही जीव क्यों न मान लिया जाए ? उसके अतिरिक्त अन्य प्रदेश तो उसके बिना अजीव ही हैं क्योंकि उसी से वे सब जीवत्व प्राप्त करते हैं।" गुरु ने उसे महावीर की जीवविषयक उपयुक्त मान्यता का रहस्य समझाने का काफी प्रयत्न किया किन्तु उसने अपना मत नहीं छोड़ा तथा दूसरों को भी इसी प्रकार समझाने लगा। परिणामस्वरूप वह संघ से निकाल दिया गया और अपनी जीवप्रदेशी मान्यता के कारण जीवप्रादेशिक के रूप में प्रसिद्ध हुआ। एक समय अमलकल्पा नामक नगरी के मित्रश्री नामक श्रमणोपासक ने तिष्यगुप्त के पात्र में अनेक प्रकार के पदार्थों का थोड़ा-थोड़ा अंतिम अंश रखा और कहने लगा-"मेरा अहोभाग्य है कि आज मैंने आपको इतने सारे पदार्थों का दान दिया।" यह सुनकर तिष्यगुप्त क्रुद्ध होकर बोला-"तुमने यह मेरा अपमान किया है।" मित्रश्री ने तुरन्त उत्तर दिया-"मैने आप ही के मत के अनुसार इतना सारा दान दिया है।" यह सुनकर तिष्यगुप्त को अपने मिथ्या मत का
१. गा० २३०६-२३३२.
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