________________
विशेषावश्यकभाष्य
१७३ और एवंभूत । आचार्य ने प्रत्येक नय का लक्षण, व्युत्पत्ति, उदाहरण आदि दृष्टियों से विस्तृत विवेचन किया है।' इस विवेचन में उन दार्शनिकों की मान्यताओं का युक्ति पुरस्सर खंडन किया गया है जो वस्तु को अनेक धर्मात्मक न मान कर किसी एक विशेष धर्मयुक्त ही मानते हैं। इसमें भारतीय दर्शन की समस्त एकान्तवादी परम्पराओं का समावेश है। समवतार :
ग्यारहवें द्वार समवतार का स्वरूप इस प्रकार है : कालिक श्रुत अर्थात् प्रथम और चरम पौरुषी में पढ़े जाने वाले श्रुत में नयों की अवतारणा नहीं होती। चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग का अपृथक् भाव से प्ररूपण होते समय नयों का विस्तारपूर्वक समवतार होता था। चरणकरणादि अनुयोगों का पृथकत्व हो जाने पर नयों का समवतार नहीं होता। अनुयोगों का पृथक्करण कब व क्यों हुआ? इस प्रश्न पर विचार करते हुए भाष्यकार कहते है कि आर्य वज्र के बाद आर्य रक्षित हुए। उन्होंने भविष्य में मतिमेधा-धारणा आदि का नाश होना जानकर अनुयोगों का विभाग कर दिया। उनके समय तक किसी एक सूत्र की व्याख्या चारों प्रकार के अनुयोगों से होती थी । उन्होंने विविध सूत्रों का निश्चित विभाजन कर दिया । चरणकरणानुयोग में कालिक श्रुतरूप ग्यारह अंग, महाकल्पश्रुत और छेदसूत्र रखे गए। धर्मकथानुयोग में ऋषिभाषितों का समावेश किया गया। गणितानुयोग में सूर्यप्रज्ञप्ति और द्रव्यानुयोग में दृष्टिवाद रखा गया । इस प्रकार अनुयोग का पृथक्करण करने के बाद आयं रक्षित ने पुष्यमित्र को गणिपद पर प्रतिष्ठित किया। यह देखकर गोष्ठामाहिल को बहुत ईर्ष्या हुई और वह मिथ्यात्व के उदय के कारण सप्तम निह्नव के रूप में प्रसिद्ध हुआ । अन्य छः निह्नवों के नाम इस प्रकार हैं : १. जमालि, २. तिष्यगुप्त, ३. आषाढ, ४. अश्वमित्र, ५. गंग और ६. षडुलूक । इन सात निह्नवों के जन्म स्थान ये हैं : १. श्रावस्ती, २. ऋषभपुर, ३. श्वेतविका, ४. मिथिला, ५. उलूकातीर, ६. अतिरंजिका और ७. दशपुर । इन सात निह्नवों के अतिरिक्त भाष्यकार ने एक निह्नव का उल्लेख और किया है जिसका नाम है शिवभूति बोटिक । उसका जन्म-स्थान रथवीरपुर है। इन आठ निह्नवों के उत्पत्ति-काल का क्रम इस प्रकार है : प्रथम दो भगवान् महावीर को केवलज्ञान होने के क्रमशः १४ एवं १६ वर्ष बाद निह्नवरूप में उत्पन्न हुए। शेष महावीर का निर्वाण होने पर क्रमशः २१४, २२०, २२८, ५४४, ५८४ और ६०९ वर्ष बाद उत्पन्न हुए। १. गा० २१८०-२२७८. २. गा० २२८४-२२९५. ३. गा० २२९६-७. ४. गा० २३०१-५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org