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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
कर्म, संप्रदान, अपादान, संनिधान । इन सभी भेदों का भाष्यकार ने दार्शनिक दृष्टि से विशेष विवेचन किया है। तीर्थंकर सामायिक का उपदेश क्यों देते हैं ? इसका उत्तर देते हुए भाष्यकार कहते हैं कि तीर्थंकरनामकर्म का उदय होने के कारण वे सामायिक आदि का उपदेश देते हैं । गौतम आदि गणधर सामायिक का उपदेश क्यों सुनते हैं ? उन्हें भगवान् के वचन सुनकर तदर्थविषयक ज्ञान प्राप्त होता है । इससे शुभ और अशुभ पदार्थों में विवेक-बुद्धि जाग्रत होती है। तथा शुभप्रवृत्ति और अशुभनिवृत्ति की भावना पैदा होती है । परिणामतः संयम और तप की वृद्धि होती है जिससे कर्मनिर्जरा होकर अन्ततोगत्वा मुक्ति प्राप्त होती है । 3
प्रत्यय :
अष्टम द्वार प्रत्यय की चर्चा करते हुए देखा गया है कि प्रत्यय का भी नामादि निक्षेपपूर्वक विचार करना चाहिए । अवधि आदि ज्ञानत्रयरूप भावप्रत्यय है । केवलज्ञानी साक्षात् सामायिक का अर्थ जानकर ही सामायिक का कथन करते हैं । इसीलिए गणधर आदि श्रोताओं को उनके वचनों में प्रत्यय अर्थात् बोधनिश्चय होता है । ४
लक्षण :
नवम द्वार लक्षण का व्याख्यान करते हुए बताया गया है कि नामादि भेद से लक्षण बारह प्रकार का होता है : नाम, स्थापना, द्रव्य, सादृश्य, सामान्य, आकार, गत्यागति, नानात्व, निमित्त उत्पाद - विगम, वीर्य और भाव । भाष्यकार ने इनका विशेष स्पष्टीकरण किया है ।" प्रस्तुत अधिकार भावलक्षण का है । सामायिक चार प्रकार की है : सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक, देशविरति - सामायिक और सर्वविरतिसामायिक । इनमें से सम्यक्त्व सामायिक और सर्वविरति अर्थात् चारित्रसामायिक क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक भाव वाली होती हैं । श्रुतसामायिक और देशविरतिसामायिक केवल क्षायोपशमिक भाव वाली ही होती हैं ।
नय :
नय नामक दसवें द्वार का विचार करते हुए कहा गया है कि अनेक धर्मात्मक वस्तु का किसी एक धर्म के आधार पर विचार करना नय कहलाता है । वह नय सात प्रकार का है : नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़
१. गा० २०९८-९.
३. गा० २१२२-८.
५. गा० २९४६-२१७६.
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२. गा० २१०० - २१२१.
४. गा० २१३१-४.
६. गा० २९७७-८.
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