________________
१८२
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास देशविरति में न तो सब द्रव्य ही होते हैं और न सब पर्याय ही। भाष्यकार ने इसका विशेष स्पष्टीकरण किया है।' कथं द्वार
सामायिक कैसे प्राप्त होती है ? इस द्वार की चर्चा भाष्यकार ने यहाँ नहीं की है। टीकाकार मलधारी हेमचन्द्र ने इस ओर संकेत करते हुए लिखा है कि सामायिक महाकष्टलभ्य है । इसके लाभक्रम के लिए 'माणुस्स' से लेकर 'अब्भुट्टाणे विणए' पर्यन्त की गाथाएँ देखनी चाहिए। कहीं कठिनाई होने पर मूलावश्यकटोका से सहायता लेनी चाहिए । कियच्चिर द्वार :
उन्नीसवां द्वार कियच्चिर है । इसमें इस प्रश्न का विचार किया गया है कि सामायिक कितने समय तक रहती है। सम्यक्त्व और श्रुत की उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागरोपम ( पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक ) है जबकि देश विरति और सर्वविरति की उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि देशोन है। सम्यक्त्व, श्रुत और देशविरति को जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है जबकि सर्वविरति सामायिक की जघन्य स्थिति एक समय है। यह सब लब्धि का स्थितिकाल है । उपयोग को दृष्टि से तो सभी की स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। कति द्वार :
सम्यक्त्वादि सामायिकों के विवक्षित समय में कितने प्रतिपत्ता, प्रतिपन्न अथवा प्रतिपतित होते हैं ? सम्यक्त्वी और देश विरत प्राणी ( क्षेत्र ) पल्योपम के असंख्यातवें भाग के बराबर होते हैं। श्रुतप्रतिपत्ता श्रेणि के असंख्यातवें भाग के बराबर होते हैं । सर्वविरतिप्रतिपत्ता सहस्राग्रशः होते हैं। यह सब प्रतिपत्ताओं की उत्कृष्ट संख्या है। पूर्वप्रतिपन्नों का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि वर्तमान समय में सम्यक्त्व और देशविरतिप्रतिपन्न असंख्येय हैं, सर्व विरतिप्रतिपन्न संख्येय हैं। इन तीनों को प्राप्त कर जो प्रतिपतित हो चुके है वे अनन्तगुण है। संप्रति श्रुतप्रतिपन्न प्रतर के असंख्यातवें भाग के बराबर हैं। शेष संसारस्थ जीव ( भाषालब्धिरहित पृथ्वी आदि ) भाषालब्धि को प्राप्त करके प्रतिपतित होने के कारण सामान्यश्रुत से प्रतिपतित माने गए हैं। सान्तर द्वार :
जीव को किसी एक समय सम्यक्त्वादि सामायिक प्राप्त होने पर पुनः उसका परित्याग हो जाने पर जितने समय के बाद उसे पुनः उसकी प्राप्ति होती है उसे
२. पृ० १०९७.
३. गा० २७६१-३.
१. गा० २७५१-२७६०. ४. गा० २७६४-२७७४.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org