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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास सब देखकर सोचा-'इसे इसमें मूर्छा हो गई है । उसे दूर करने का कोई उपाय करना चाहिए।' यह सोच कर उन्होंने उसके बाहर जाने पर बिना कुछ पूछ-ताछे उस रत्नकम्बल को फाड़कर उसके छोटे-छोटे टुकड़े करके साधुओं के पादप्रोच्छनक बना दिये। यह जानकर शिवभूति मन ही मन जलने लगा। उसका कषाय दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा । एक समय आचार्य जिनकल्पियों का वर्णन कर रहे थे : 'किन्हीं जिनकल्पियों के रजोहरण और मुखव निका-ये दो ही उपधियाँ होती हैं, आदि ।' यह सुनकर शिवभूति ने कहा- 'यदि ऐसा ही है तो हम लोग इतना सारा परिग्रह क्योंकर रखते हैं ? उसी जिनकल्प का पालन क्यों नहीं करते ?" आचार्य ने उसे समझाया कि इस समय उपयुक्त संहनन आदि का अभाव होने से उसका पालन शक्य नहीं। शिवभूति ने कहा-'मेरे रहते हुए यह अशक्य कैसे हो सकता है ? मैं अभी इसका आचरण करके दिखाता हूँ।" यह कहकर वह अभिनिवेशवश अपने वस्त्रों को वहीं फेंक कर चला गया। बाद में उसने कौंडिन्य
और कोट्टवीर नामक दो शिष्यों को दीक्षा दी। इस प्रकार यह परंपरा आगे बढ़ती गयो जो बोटिक मत के नाम से प्रसिद्ध हुई । बोटिकों के मतानुसार वस्र कषाय का कारण होने से परिग्रहरूप है अतः त्याज्य है । भाष्यकार आर्यकृष्ण के शब्दों में इस मत का खण्डन करते हुए कहते हैं कि जो जो कषाय का हेतु है वह वह यदि परिग्रह है और उसे त्याग देना चाहिए तो स्वकीय शरीर को भी त्याग देना पड़ेगा क्योंकि वह भी कषायोत्पत्ति का हेतु है अतः परिग्रह है। ___ ग्यारहवें द्वार समवतार की व्याख्या करते समय गोष्ठामाहिल का प्रसंग आया और उसी प्रसंग से निह्नववादी की चर्चा प्रारंभ हुई। इस चर्चा की समाप्ति के साथ समवतार द्वार की व्याख्या भी समाप्त होती है। अनुमत द्वार: ___ बारहवें द्वार का नाम अनुमत है । व्यवहार-निश्चय नय की दृष्टि से कौनसी सामायिक मोक्षमार्ग का कारण है, इसका विचार करना अनुमत कहलाता है । नेगम, संग्रह और व्यवहार नय की अपेक्षा से सम्यक्त्व, श्रुत और चारित्ररूप तीनों प्रकार की सामायिक मोक्षमार्गरूप मानी गयी है। शब्द तथा ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से केवल चारित्रसामायिक ही मोक्षमार्ग है । किं द्वार:
सामायिक क्या है ? सामायिक जीव है अथवा अजीव ? जीव और अजीव में भी वह द्रव्य है अथवा गुण ? अथवा वह जीवाजीव उभयात्मक है ? अथवा जीव और अजीव दोनों से भिन्न कोई अर्थान्तर है ? आत्मा अर्थात् जीव ही १. गा० २५५०-२६०९. २. गा० २६११-२६३२.
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