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विशेषावश्यकभाष्य
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सप्तम निहव :
सप्तम निह्नव का नाम गोष्ठामाहिल है। उसने इस मान्यता का प्रचार किया कि जीव और कर्म का बंध नहीं अपितु स्पर्शमात्र होता है । इसी अबद्ध सिद्धान्त के कारण वह अबद्धिक निह्नव के नाम से प्रसिद्ध है । इस सिद्धान्त को उत्पत्ति से सम्बद्ध कथा इस प्रकार है : आर्यरक्षित की मृत्यु के बाद आचार्य दुर्बलिका पुष्पमित्र गणिपद पर प्रतिष्ठित हुए। उसी गण में गोष्ठामाहिल नाम का एक साधु भी था । एक समय आचार्य दुर्बलिका पुष्पमित्र विन्ध्य नामक एक साधु को कर्मप्रवाद नामक पूर्व का कर्मबन्धाधिकार पढ़ा रहे थे | उसमें ऐसा वर्णन आया कि कोई कर्म केवल जीव का स्पर्श करके ही अलग हो जाता है । उसकी स्थिति अधिक समय तक की नहीं होतो । जिस प्रकार किसी सूखी दीवाल पर मिट्टी डालते ही दीवाल का स्पर्श करते ही मिट्टी तुरन्त नीचे गिर पड़ती है उसी प्रकार कोई कर्म जीव का स्पर्श करके थोड़े ही समय में उससे अलग हो जाता है । जैसे गीली दीवाल पर मिट्टी डालने से वह उसी में मिल कर एक रूप हो जाती है तथा बहुत समय के बाद उससे अलग हो सकती है वैसे ही जो कर्म बद्ध, स्पृष्ट तथा निकाचित होता है वह जीव के साथ एकत्व को प्राप्त कर कालान्तर में उदय में आता है। यह सुनकर गोष्ठामाहिल कहने लगा-"यदि ऐसी बात है तो जीव और कर्म कभी अलग नहीं होने चाहिए क्योंकि वे एकरूप हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में कर्मबद्ध को कभी मोक्ष नहीं हो सकता क्योंकि वह हमेशा कम से बंधा रहेगा। इसलिए वास्तव में जीव और कर्म का बंध ही नहीं मानना चाहिए । केवल जोव और कर्म का स्पर्श ही मानना चाहिए।" आचार्य ने उसे इन दोनों अवस्थाओं का रहस्य समझाया किन्तु ईर्ष्या एवं अभिनिवेश के कारण उसके मन में उनकी बात न अँची । अन्ततोगत्वा वह संघ से बहिष्कृत कर दिया गया। अष्टम निह्नव :
यह अन्तिम निह्नव है। इसकी प्रसिद्धि बोटिक-दिगंबर के रूप में है। कथानक इस प्रकार है : रथवीरपुर नामक नगर में शिवभूति नामक एक साधु आया हुआ था। वहाँ के राजा ने उसे बहुमूल्य रत्नकम्बल दिया। यह देखकर शिवभूति के गुरु आर्यकृष्ण ने कहा-“साधु के मार्ग में अनेक अनर्थ उत्पन्न करने वाले इस कम्बल को ग्रहण करना ठीक नहीं।" उसने गुरु की आज्ञा की अवहेलना कर उस कम्बल को छिपाकर अपने पास रख लिया। गोचरचर्या से लोटने पर प्रतिदिन उसे संभाल लेता किन्तु कभी काम में नहीं लेता । गुरु ने यह
१. गा० २५०९-२५४९.
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