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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास यह नियम व्यभिचारी है कि जो कृतक होता है वह अनित्य ही होता है । घटादि का प्रध्वंसाभाव कृतक होने पर भी नित्य है । यदि प्रध्वंसाभाव को अनित्य माना जाए तो प्रध्वंसाभाव का अभाव हो जाने के कारण विनष्ट घटादि पदार्थ पुनः उत्पन्न हो जाने चाहिए । किन्तु ऐसा नहीं होता । अतः प्रध्वंसाभाव को कृतक होने पर भी नित्य मानना पड़ता है। इसी प्रकार कृतक होने पर भी मोक्ष नित्य है।' इसके बाद आचार्य ने सिद्ध-मुक्त आत्माओं के स्वरूप की चर्चा की है तथा लोकाकाश, अलोकाकाश आदि का वर्णन किया है।
इस प्रकार जब भगवान महावीर ने मंडिक के संशय का निवारण कर दिया तब उन्होंने अपने साढ़े तीन सौ शिष्यों सहित जिनदीक्षा अंगीकार कर ली । ३ देवों का अस्तित्व :
मंडिक के दीक्षित होने का समाचार सुनकर मौर्यपुत्र भी भगवान् के पास पहुँचे । भगवान् ने उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा-मौर्यपुत्र ! तुम्हारे मन में यह सन्देह है कि देव हैं अथवा नहीं ? मैं तुम्हारे सन्देह का निराकरण करूँगा। ___ मौर्यपुत्र ! तुम यह सोचते हो कि नारक तो परतन्त्र हैं तथा अत्यन्त दुःखी हैं अतः वे हमारे सन्मुख उपस्थित होने में असमर्थ हैं। किन्तु देव तो स्वच्छन्दविहारी हैं तथा दिव्य प्रभावयुक्त हैं। फिर भी वे कभी दिखाई नहीं देते । उनके अस्तित्व के विषय में सन्देह होना स्वाभाविक है।"
इस सन्देह का निवारण इस प्रकार किया जा सकता है : कम से कम सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिष्क देव तो प्रत्यक्ष दिखाई ही देते हैं अतः यह नहीं कहा जा सकता कि देव कभी दिखाई नहीं देते । इसके अतिरिक्त लोक में देवकृत अनुग्रह और पीड़ा दोनों ही हैं। इसके आधार पर भी देवों का अस्तित्व स्वीकार करना चाहिए।
चन्द्र, सूर्य आदि शून्यनगर के समान दिखाई देते हैं । उनमें निवास करने वाला कोई भी नहीं है। अतः यह कैसे कहा जा सकता है कि सूर्यादि का प्रत्यक्ष होने से देवों का भी प्रत्यक्ष हो गया ? इस शंका का समाधान करते हुए भगवान् महावीर कहते हैं कि सूर्य, चन्द्रादि को आलय मानने पर उनमें रहने वाला भी कोई न कोई मानना ही चाहिए अन्यथा उन्हें आलय नहीं कहा जा सकता। यहाँ एक और शंका उत्पन्न होती है । जिन्हें आलय कहा गया है वे वास्तव में आलय हैं या नहीं, इसका निर्णय न होने की अवस्था में यह नहीं कहा जा सकता कि वे १. गा० १८३७. २. गा० १८४०-१८६२. ३. गा० १८६३. ४. गा० १८६४-६. ५. गा० १८६७-८. ६. गा० १८७०. ७. गा० १८७१.
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